चारों तरफ एक अजीब सी शांति है। लोगों को आना-जाना लगा हुआ है। मंत्रीजी के निवास पर वैसे तो रोज ही आगंतुकों की भीड़ लगी रहती है लेकिन आज इतनी भीड़ के बाद सन्नाटा पसरा है। दरअसल मंत्रीजी की मां का कुछ ही दिनों पूर्व निधन हुआ। आज उनकी याद में शोकसभा आयोजित की गई है। एक के बाद एक लोग आकर माताजी की फोटो के सामने रोकर दुख प्रकट कर रहे हैं और कुछ मंत्रीजी को ढांढस बंधा रहे हैं। अमूमन मगरमच्छ के आंसू बहाने वाले मंत्रीजी की आंखें आज सचमुच नम हैं। उनके पीछे उनके समर्थक भी दहाड़ मार-मारकर रो रहे हैं।
उधर उनका एक समर्थक राजू जैसे ही अपने घर से शोकसभा में जाने के लिए निकला, पीछे से बीवी ने आवाज दी- "अजी, कहां जा रहे हो? माताजी की तबीयत खराब है जरा डॉक्टर को दिखा दो, कल रात से ही खांस रही हैं।" वह चिढ़ता हुआ बोला- "कितनी बार कहा है अच्छे काम से जा रहा हूं तो पीछे से टोका मत करो। ऐसा करो घर में कोई दवाई रखी हो तो मां को खिला दो। शोकसभा से आते ही उन्हें डॉक्टर के पास ले जाऊंगा। मेरा अभी शोकसभा में जाना बहुत जरूरी है। चुनाव नजदीक हैं, दुख के वक्त मंत्रीजी के साथ रहकर उनकी नजरों में चढ़ना जरूरी है तभी तो पार्टी समिति में कोई अच्छा पद मिलेगा। कब तक यूं ही कार्यकर्ता बना रहूंगा। अब जाओ अंदर।" इतना सुन बीवी इतना अंदर चली गई और दवाई खोजने लगी। दौड़ता-दौड़ता राजू शोकसभा में पहुंचा। जैसे ही पहुंचा भीड़ को देखकर उसकी आंखें फट गईं। यहां तो रोने वालों की लाइन लगी थी। उसका नंबर आते तक कितने ही कार्यकर्ता से सचिव बन जाएंगे और वो कार्यकर्ता का कार्यकर्ता ही रह जाएगा। मंत्रीजी के पीछे टोली बनाकर कार्यकर्ता कोरस में गा रहे थे। उस टोली में श्याम, रवि और किशोर भी थे जिन्होंने उसे कल रात भर दारू पिलाकर टल्ली किया और मंत्रीजी को मक्खन लगाने की जुगत में खुद सुबह सुबह खुद शोकसभा में पहुंच गए। उन तीनों को देख राजू का पारा चढ़ने लगा था। पर वो अब क्या करता इस भीड़ के छंटने का इंतजार भी नहीं किया जा सकता था क्योंकि तब तक मंत्रीजी कितनों के मक्खन में पूरी तरह फिसल चुके होते। इसी पशोपेश में उसे एक तरीका सूझा। उसने दो कदम पीछे लिए और यूसेन बोल्ट का रिकार्ड तोड़ते हुए मेन गेट से माताजी की फोटो तक की दूरी मात्र ८ सेकंड में पूरी कर ली। इसी फर्राटा दौड़ के दौरान उसने कितनों की साडि़यों पर कीचड़ छींटे और कईयों के कुर्ते मैले कर दिए लेकिन इन सबके की परवाह न करते हुए वह सीधा माताजी के फोटो के सामने आकर रुक गया। उसकी एक्सप्रेस गति से माताजी की फोटो भी हिल गई और पास में लगे नारियल और अगरबत्ती भी। किसी तरह उसने अगरबत्ती और नारियल को व्यवस्थित रखने की कोशिश की और फिर गला फाड़-फाड़कर रोने लगा। रोते-रोते वह उन कार्यकर्तां की टोली की तरफ भी देखने लगा, शायद यह जताना चाह रहा था कि "जाओ तुम लोग सिंगल-सिंगल रन लो मैंने तो सीधा छक्का मार दिया है"।
तभी मंत्रीजी आए और उसे उठाते हुए धीरे से कान में बोले- "तुम्हें दुख है मुझे पता है लेकिन जाते हुए मेरे साले से जरूर मिलते जाना। अपनी फर्राटा दौड़ के दौरान तुमने उसके कुर्ते और उसकी पत्नी की साड़ी पर जो कीचड़ की पेंटिंग की है, उसका इनाम देने के लिए वो तुम्हारा इंतजार कर रहा है।" यह सुनकर राजू का गला सूख गया। छुपती नजरों से उसने गेंडे जैसे मंत्रीजी के साले को देखा जिसकी आंखें गुस्से से लाल थी। यह सब देख कार्यकर्ताओं की टोली धीरे से मुस्कुराई और फिर पहले की तरह अपनी रुदाली एक्सप्रेस शुरू कर दी। यह टोली रोने में रुदालियों को भी मात दे रही थी। उस टोली को पता था कि सिंगल-सिंगल लेकर अर्धशतक बनाने में ही समझदारी है, राजू की तरह छक्का मारने पर कैच आउट होने का डर है।
रोने का यह सिलसिला चल ही रहा था कि अचानक गेट के पास बड़ी भीड़ दिखाई दी। कुछ ही महीनों पहले अनुशासनहीनता के कारण पार्टी से निष्कासित नेता राममुरारी अपनी समर्थकों के साथ शोकसभा में शामिल होने आए। सफेद कुर्तेधारियों से घिरे रामुरारी मोटी-मोटी आखों से अश्रुधारा बहाते हुए उपस्थित हुए। राममुरारी की मोटी-मोटी अश्रुधाराओं ने उनकी मोटी-मोटी मूंछों को भींगा दिया था। अपने आंसू पोछते हुए वे मंत्रीजी की तरफ बढ़े और कंधे पर हाथ रखते हुए बोले- "मंत्रीजी की माताजी के आकस्मिक देहांत से मुझे बहुत दुख हुआ है। मैंने नहीं सोचा था कि वे इस तरह हमें छोड़कर चली जाएंगी। ये अवसाद का पल है। मंत्रीजी को माताजी के जाने का बहुत दुख है। पर असल बात तो यह है कि मंत्रीजी की माताजी इनकी मां नहीं थी, वो मेरी मां थी।" इतना सुनते ही मीडियावालों के कैमरे, माइक और डायरियों ने रामुरारी की तरफ रुख कर दिया। राममुरारी की तरफ से किसी विस्फोटक रहस्योद्गाटन की आस में मीडिया पलके बिछाए खड़ी थी। तभी आंख और नाक पोछते हुए राममुरारी ने कहा- "ये मंत्रीजी की मां नहीं थी, ये आपकी, मेरी और हम सब की मां थी। इन्होंने अपने बेटे की तरह हम सबको अपनी ममता प्रदान की। वे राज्यमाता थी।" ये सब सुनकर किसी मसालेदार खबर की आस में बैठे मीडियावालों के कंधे निराशा में झुक गए और साथ ही उनके कैमरे और माइक भी। रामुरारी ने कहा-"मैं माताजी की गोद में खेला हूं। आज भले ही मुझे पार्टी से निष्कासित कर दिया गया है लेकिन मैंने हमेशा माताजी को अपनी मां माना है और मंत्रीजी को अपना भाई। मुझे आज भी वो दिन याद है जब माताजी प्यार से मुझे अपने हाथों से आलू के पराठे खिलाती थी।" मंत्रीजी सोच में पड़ गए और बोले-"मगर माताजी को तो आलू के पराठे बनाने आते ही नहीं थे। आलू के पराठे तो शांता हमारी आयाबाई बनाती थी।" राममुरारी बात को संभालते हुए बोले-"हां वही तो मैं कह रहा हूं, कि हमारी माताजी आधुनिक थी और इसलिए हमें पिज्जा खिलाया करती थी।" मंत्रीजी फिर बीच में टोकते हुए बोले-"राममुरारी, तुम भूल रहे हो माताजी तो हमारे लिए पिज्जा बनाती नहीं थी बल्कि पिज्जा आर्डर कर हमको आयाबाई के हवाले करके महिला सम्मेलनों में जाती थी।" राममुरारी ने छूटती डोर को पकड़ा और बोले- "वही तो बोल रहा हूं मंत्रीजी, कि माताजी हमारे लिए बड़े प्यार से पिज्जा आर्डर करती थी। और आज उसी प्यार और ममता की कमी महसूस हो रही है। मैं यहां अपना निष्कासन रद्द करवाने और पार्टी में वापसी का कोई जुगाड़ लगाने नहीं आया हूं। मैं इसलिए आया हूं ताकि माताजी के जाने से मेरे जीवन में जो रिक्तस्थान हुआ है उसे रो-रोकर भरने की कोशिश कर सकूं। इसलिए मैं और मेरे समर्थक आज पूरा दिन मंत्रीजी के साथ रहकर उनका दुख बांटेंगे।" मंत्रीजी समझ चुके थे कि ये पट्ठा ऐसे पीछा नहीं छोड़ने वाला। आज बिना पार्टी में वापसी किए ये पीछा नहीं छोड़ेगा। इसलिए उन्होंने राममुरारी को उठाया और अपने साथ बैठा लिया ताकि और लोगों को भी रोने का बराबर मौका मिले।
रोने और सांत्वना देने का यह सिलसिला शाम तक चलता रहा। सब लोगों ने बारी बारी से अपने रुदनकौशल का परिचय दिया और जमकर रोए। कुछ ने मंत्रीजी के कंधों पर हाथ रखकर अपने करीबी होने का अहसास दिलाने की कोशिश की। मंत्रीजी भी इन सब प्रपंच से वाकिफ थे लेकिन मौके की नजाकत को देखते हुए इन सबका ड्रामा झेल रहे थे और इनके फिल्मी डायलॉग किसी तरह हलफ के नीचे उतार रहे थे। बार-बार वही डायलॉग सुन-सुनकर मंत्रीजी को भी अपचन हो गई थी। जो मंत्रीजी डामर, तेल, चारा से लेकर बारदाना, पेन, पेंसिल तक पचा चुके थे, वे आज इन पिछलग्गुओं के ड्रामे पचाने में असक्षम थे। पर उनकी आंखें किसी और का इंतजार कर रही थी, उनके पार्टी अध्यक्ष का। दरअसल कुछ महीनों बाद चुनाव थे और इस बार उनकी सीट खतरे में थी।
मंत्रीजी सोच में डूबे थे तभी धीर-गंभीर अंदाज में पार्टी अध्यक्ष का आगमन हुआ। उन्होंने बिना किसी औपचारिकता निभाए और रोने -गाने में समय व्यर्थ किए माताजी के फोटो के समक्ष हाथ जोड़े और मंत्रीजी की तरफ मुखातिब हुए। मंत्रीजी के पास जाकर बोले- "आपकी माताजी के निधन का हमें दुख है। पिताजी के जाने के बाद वही आपका साया थी लेकिन उनका आशीर्वाद आपके साथ हमेशा रहेगा। और उन्हीं के आशीर्वाद से खतरे में पड़ी आपकी सीट बच गई। पार्टी ने निर्णय लिया है कि आने वाले चुनाव में आप अपनी इसी सीट से लड़ेंगे। अपना खोया हुआ जनाधार पाने का यह स्वर्णिम मौका है। माताजी के देहांत के बाद आपको भरपूर सांत्वना वोट मिलेंगे। इसलिए कल से ही चुनाव की तैयारी करते हुए जनसम्पर्क शुरू कर दीजिए। " मंत्रीजी यही बात तो सुनना चाहते थे। उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को धन्यवाद दिया और पलटकर अपनी माताजी की फोटो की तरफ देखा। उनकी आंखों में आंसू थे- खुशी के, गम के और ग्लानि के। ग्लानि के आंसू इसलिए क्योंकि शायद वह अपनी माता से मन ही मन कह रहे थे- "मुझे माफ कर देना। लेकिन इस चुनाव को जीतने के लिए तेरी मौत का भी तमाशा बनाना पड़ेगा।" मंत्रीजी पार्टी अध्यक्ष को बाहर ले गए और बात को आगे बढ़ाने लगे। शाम हो चुकी थी। लोग अब वापस जाने लगे थे। माताजी की तस्वीर पर चढ़ा हार गिर चुका था और उनके सामने जल रहा दीया भी बुझ चुका था। लेकिन अब उसे ठीक करने वाले कोई नहीं था क्योंकि शोकसभा में आए लोगों के अपने-अपने काम हो चुके थे।
गुरुवार, जुलाई 15, 2010 |
Category:
व्यंग्य
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