हिन्दीभाषी राष्ट्र में कमजोर अंग्रेजी का खामियाजा किस तरह भुगतना
पड़ता है इसका पता हमें कुछ दिनों पूर्व चला। हम टकटकी लगाए रोड के किनारे
बनी बड़ी-बड़ी दुकानों को निहारते हुए जा रहे थे। चूंकि महंगाई डायन के
शिकंजे में जकड़े हुए हैं इसलिए आजकल दूरदर्शन से ही संतोष करना पड़ता है।
ऐसे में हमारी नजर एक दुकान पर ठहर गई। उस पर लिखा था "sale" 50 प्रतिशत
की छूट। यह पढ़ते ही हमारी आंखों में चमक आ गई। हमारे निखट्टू (sale) साले
ने कपड़े की दुकान खोल ली और अपने जीजा को 50 प्रतिशत की छूट दे रहा है।
अपने साले के इस अविश्वसनीय व अकस्मात् प्रेम से अभिभूत मैं दुकान की ओर चल
पड़ा।
काउंटर पर 100 वॉट की मुस्कान बिखेरती एक खूबसूरत
अप्सरा बैठी थी। जिस तरह स्ट्रीट लाइट की रोशनी सैंकड़ों कीट-पतंगों को
आकर्षित करती है उसी तरह वह मुस्काती अप्सरा अपनी चमकदार मुस्कान से कईयों
को आकर्षित कर रही थी। उस प्रकाशपुंज से नजर हटाते ही हमारी नजर एक
सेल्समेन पर पड़ी। हमने उससे अपने साले निखट्टू का नाम पूछा। उसने उस नाम
से अनभिज्ञता जताई लेकिन कहा इसे आप अपनी ही दुकान समझिए और कपड़े खरीदिए।
तभी दो और सेल्समेन खड़े हो गए एक पानी लिए और दूसरा रास्ता दिखाने। अब तक
हम अपने ससुरालवालों खासकर अपने साले से काफी खफा रहा करते थे, लेकिन उसकी
दुकान में ऐसा घरेलू माहौल व आतिथ्य देखकर हमारे आंसू निकल आए।
हमने अपने घडिय़ाली आंसू पोंछे और लगे कपड़े छांटने।
चूंकि वहां कपड़े बदलने का कक्ष भी था हम एक के बाद एक कपड़े बदलते रहे। एक
घंटे में हमने इतने कपड़े बदल लिए जितने अभी तक के जीवनकाल में नहीं पहने।
इसके बावजूद दोनों सेल्समेन के सपाट चेहरों पर मुस्कान चस्पी हुई थी। हमने
काउंटर पर बैठी उस मुस्कुराती अप्सरा को देखा, वह अब भी मुस्कुरा रही थी।
पूरी दुकान में मुस्कान की सप्लाई वही कर रही थी। जो उन्हें देख ले
मुस्काने लगता, मुस्कुराने का यह रोग कंजक्टीवाइटिस की तरह फैल रहा था। 50
कपड़े पहनने के बाद भी हमें कपड़े कुछ खास पसंद नहीं आ रहे थे, वहीं
जय-विजय की तरह खड़े दोनों सेल्समेन हम पर कपड़े थोपे जा रहे थे।
आखिर मैंने दो जोड़ी कपड़े ले ही लिए वह भी 50 प्रतिशत
की छूट पर। महंगाई के जमाने में आपको छूट मिल जाए तो ऐसा लगता है भरी
गर्मी में किसी ने ठंडा पानी पिला दिया। मगर ऐसे में लू लगने का खतरा भी
रहता है। हम खुशी के मारे तुरंत घर लौटे लेकिन घर पहुंचते ही हमारी खुशी को
लू लग गई। जो कपड़े हम खरीदकर लाए वह डिफेक्टिव थे, पेंट फटा था, शर्ट की
सिलाई निकली थी। गुस्से से भरा मैं वापस दुकान गया। वहां का माहौल ही बदला
हुआ था। मुस्कारती हुई अप्सरा अब फुफकारती हुई नागिन बन चुकी थी। हममें भी
उबाल कम न था, हमने उससे कहा- ये डिफेक्टिव कपड़े तुम लोगों ने दिया इसे
वापस करो। वह फुफकारती हुई बोली- नहीं होगा और हमें एक नोट दिखाया जिस पर
लिखा था बिका हुआ माल वापस नहीं होगा। मेरा गुस्सा 100 डिग्री से 50 डिग्री
पर आ गया। मगर दिल में गर्मी अब भी थी, मैंने कहा- मेरे साले (sale) को
बुलाओ जिसकी दुकान है और जिसका नाम बाहर बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है। वह
कुटिल हंसी हंसते हुए बोली- वह साले नहीं सेल लिखा है। कपड़ों का पता नहीं
तुम्हारी अंग्रेजी जरूर डिफेक्टिव है। तुमने 50 कपड़े पहने फिर भी एक ढंग
का कपड़ा नहीं छांट पाए, गलती तुम्हारी है। मेरा तापमान अब 50 डिग्री से 0
डिग्री हो चुका था, मैं बोला- लेकिन मेरे पास विकल्प ही नहीं थे, जो थे सब
बेकार थे। युवती बोली- आपको समझाती ह, जब चुनाव में आपके सामने डिफेक्टिव
प्रत्याशी खड़े किए जाते हैं तब तो कुछ नहीं बोलते, आखिर चुनते हो ना उनमें
से कोई। जब इतने बड़े डिफेक्ट के साथ नेताओं को 5 साल चला लेते हो, वापस
थोड़ी भेजते हो। तो इन कपड़ों में तो छोटा-मोटा डिफेक्ट है, घर में सीलकर
चला लो। हार मानते हुए मैंने उनसे सुई-धागा की गुजारिश की जो उन्होंने
मुस्कुराते हुए दिया। उनकी मुस्कान का 100 वॉट का बल्ब फिर जल चुका था।
मैं भी डीप फ्रीजर से निकले आइसक्रीम की तरह ठंडा होकर
वहां से निकला। सीढ़ी पर ही एक गुस्से से खौलते व्यक्ति से मुलाकात हो गई।
शायद वह भी कपड़े वापस करवाने आया था। मैंने उसके कंधों पर हाथ रखा और
कहा- ठंडे हो जाओ मित्र! बिका हुआ माल और चुना हुआ नेता वापस नहीं होते।
मंगलवार, मार्च 26, 2013 |
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