सत्संग अर्थात सत्य का संग या अच्छाई का संग। वेद-पुराणों में भी कहा गया है कि बुराई का संग नहीं बल्कि अच्छाई का संग करना चाहिए। भारत वैसे तो कृषि प्रधान देश माना जाता है लेकिन यह धर्म और भक्ति प्रधान देश भी है। यहां सभी धर्मों को बराबर मौका मिलता है फलने फूलने और साथ में फलते-फूलते हैं सत्संग कराने वाले तरह-तरह बाबा। जितनी वैरायटी बाबाओं की यहां मिलती है उतनी कहीं नहीं मिलती। भारत जैसे खुशमिजाज देश में दुःखों की कोई कमी नहीं है। सुख के बाद दुख आता है और हर दुख को भगाने के लिए संत-महात्मा आते हैं। आदमी हर त्यौहार पर खुशी मनाता है और अगले ही दिन से दुख का रोना रोने लगता है। इसलिए अपने देश में बाबागिरी पर कभी भी आर्थिक मंदी की मार नहीं पड़ने वाली। बहुत सेफ सेक्टर है ये। दुख के वक्त अपने लिए १० रुपए खर्च नहीं कर सकने वाला आदमी भी पता नहीं कहां से बाबा के चरणों में ५० रुपए चढ़ा देता है शायद इस उम्मीद में कि बाबा ५० का ५० हजार करके देंगे। और ऐसे दुखियारों की भारत में बहुतायात में हैं।
कभी-कभी मुझे लगता है भारत में कृषि और धर्म की गाड़ी लगभग एक जैसी ही चलती है। पहले भारत में पारंपरिक खेती चला करती थी। दो बैल, हल, प्राकृतिक बीज बस इतना काफी था और ठीक-ठाक पैदावार भी हो जाती थी। लेकिन अब तो जमीन से जबरदस्ती अन्न उगलवाया जाता है। दस प्रकार के खाद, उर्वरक और यहां इंजेक्शन लगा-लगाकर पैदावर बढ़ाई जा रही है। ठीक उसी प्रकार पहले संत-महात्मा जंगल में आश्रम में अपनी भक्ति किया करते थे। और उनके ज्ञान से प्रभावित होकर ठीक-ठाक पबिल्क आ ही जाती थी। लेकिन अब तो जैसे बाबाओं की बाढ़ आ गई है। पकड़-पकड़कर प्रवचनों और सत्संगों में भक्त जुगाड़े जा रहे हैं। कहीं सत्संग सूना न हो जाए इसलिए खूब तिकड़म किए जा रहे हैं। दिन-ब-दिन नए बाबाओं को पैदा होते देख डर लगता है कि कहीं ऐसा दिन न आ जाए कि भक्तों से ज्यादा संख्या बाबाओं की आ जाए। खैर वो तो बाद की बात है अभी मैं आपका सत्संग की खूबियों से वाकिफ कराता हूं।
हमारे शहर में भी आजकल सत्संग पे सत्संग हो रहे हैं। एक बाबा शहर से गए नहीं होते हैं कि दो और टपक पड़ते हैं। कभी-कभी तो आयोजन स्थल की ही कमी पड़ जाती है। एडजस्ट करते हुए अगल-बगल ही दो-दो सत्संग करवाने पड़ते हैं। बहुत बार तो भक्त ही चक्कर में पड़ जाते हैं, निकले होते हैं गीता पाठ सुनने और बैठ जाते हैं रामचरित मानस के पाठ में। जब भीड़ की ऐसी अदला-बदला हो रही हो तो कई बार बाबाओं के चेले-चपाटी ही आपस में उलझ जाते हैं। कुछ ही दिनों पहले एक सत्संग में जाना हुआ। भीड़ तो इतनी थी मानो आज यहां सब अपना पाप धोकर ही जाएंगे और यहां से थोक में नीति पुरुष एवं महिलाएं ही निकलेंगे। भीड़ देखते ही मैं समझ गया सब पापी हैं। तभी "मोह माया से दूर रहो" की बात करने वाले श्री मोहानंद मनमोहिनी कार में अपने चेलों के साथ उपस्थित हुए। वे कहते हैं शरीर नश्वर है, भयभीत न हो ईश्वर तुम्हारे साथ है, लेकिन खुद सुरक्षाकर्मियों के घेरे में थे शायद उनको ईश्वर से ही भय था। ये बाबा कभी आपका पीछा नहीं छोड़ते। सत्संग से छूटे तो ताबीजों और मालाओं में जकड़ लेते हैं, और नहीं तो फोटोरूप में आपके घर की शोभा बढ़ाते हैं। आप दिन में जितनी बार आईना नहीं देखते होंगे उतनी बार इनकी फोटो से आंखें टकरानी पड़ती है।
मैं सत्संग पर लाख व्यंग्य कस लूं लेकिन खुद को सत्संग में जाने से रोक नहीं सकता क्योंकि सत्संग में वो आती है जिसका मुझे संग चाहिए। मेरी छोड़िए और सत्संग से और भी बहुत से लोग के काम बन जाते हैं और ये सब सत्संग का बेसब्री से इंतजार करते हैं। जैसे- पानठेले, चाय ठेले, चाट ठेलों की तो निकल पड़ती है। बस सत्संग के आसपास अपने ठेलों को टिका दिया। चाट ठेलों के पास दो लड़की आएंगी और उन लड़कियों के पीछे दस लड़के और उन लड़कों को लड़कियों से दूर रखने उन लड़कियों के परिवार वाले भी आ जाते हैं। मतलब एक बार में ही २०-२५ ग्राहक खड़े-खड़े मिल जाते हैं। जितनी आमदानी इन लोगों को सत्संग वाले दिन होती है उतनी तो महीने भर नसीब न हो। यही वजह है कि बाबा लोगों को ये पानठेले वाले लाख दुआएं देते हैं इस तरह दोनो की गाड़ी मक्खन की तरह चलती रहती है।
अब बात करते हैं जेबकतरों की। इन्हें तो सत्संग का बेसब्री से इंतजार रहता है। ये मंदिरों में जा-जाकर मत्था टेकते हैं कि और कामना करते हैं कि रोज सत्संग हो और इनके पास पैसों का संग हो। कुछ अति संवेदनशील जेबकतरे तो अपनी कामना पूर्ति के लिए मनोकामना कलश और मौली धागा तक बांध आते हैं। सत्संग में जब बाबा कह रहे होते हैं कि "इंसान खाली हाथ आता है, और खाली हाथ जाता है" तब ये लोग अपनी जेब दूसरे के पर्स और नोट से भर रहे होते हैं। ये लोग खाली हाथ आते हैं पर खाली हाथ नहीं जाते। ये जेब कतरे तो असली सत्संगी प्रतीत होते हैं, बाबा तो सिर्फ बोल बचन देते हैं लेकिन इसे व्यवहार में उतारते हैं ये "जेबकतरे"। जैसे ही बाबा बोलते हैं "इंसान को मोह-माया से दूर रहना चाहिए" ये लोग तत्क्षण सत्संग में आए भक्तों के जेब काटना और पर्स मारकर भक्तों को मोह-माया से दूर कर देते हैं। दुखी महिलाओं का सुख उनके पति छीन लेते हैं और चैन ये जेबकतरे। ये जेबकतरे हर सत्संग में नियमित रूप से पहुंचते हैं और इतना ज्ञान पी चुके होते हैं कि कुछ सालों बाद ये खुद बाबा बनकर अपना सत्संग कराने लगते हैं और भक्तों की जेब काटना नहीं बल्कि उनके जेब पर खुलेआम डाका डालते हैं।
जैसा कि सब जानते हैं हम सभी पापी हैं। कम-ज्यादा मात्रा में ही सही पाप तो सबने किया है। अब पाप किया है तो प्रायिश्चत तो करना पड़ेगा वरना मन हल्का नहीं होता। तो मन हल्का करने का सबसे सरल, सुलभ तरीका है- सत्संग में जाइए और मन और जेब दोनों हल्का कीजिए। अब पिछले ही दिनों लाखों का घोटाला करके बैठा एक अधिकारी बैचेन था। इसलिए वह सत्संग में गया और दानपेटी में १००० रुपए डाल दिए। १००० रुपए दान करने के बाद उसके चेहरे पर ऐसी अद्भुत शांति थी जैसे लाखों का पाप उतर गया हो। जाते हुए उसने अपने से उच्च श्रेणी के भ्रष्ट बाबा के पैर छूकर उनसे भविष्य में और बड़े घोटाले करने का आशीर्वाद भी मांग लिया। महिलाओं तो सत्संग के नाम ही दौड़ पड़ती हैं क्योंकि सत्संग में बड़ी संख्या में महिलाओं के होने से इनके चुगली के मसाले के लिए कोई कमी नही रहती। दोपहर को "कटु वचन न कहो" का ज्ञान सुनने वाली महिलाएं शाम होते ही फिर अपनी चुगलबंदी में लग जाती हैं। इस तरह सभी किसी न किसी तरह सत्संग से अपना स्वार्थ निकाल ही लेते हैं।
इन बाबाओं के आगे-पीछे घूमते हैं ऊंचे घराने वाले और ये ही इन्हें अपने घर में ठहराते हैं। इस बहाने थोड़ा धरम-करम भी हो जाता है। काली कमाई भी छुप जाती है और थोड़ा रसूख भी बढ़ जाता है। एक पंथ कई काज, सभी दर्द का एक इलाज। सब सत्संग में पधारे लेकिन नेताजी छूट जाएं ऐसा कैसे हो सकता है। नेताजी सबसे आखिर में आते हैं। प्रवचन के अंतिम दिन वे आते हैं प्रवचनकर्ता बाबा के चरण छूते हैं और उन्हें शांत भाव से एकटक निहारते रहते हैं। वे बाबा के जादुई व्यक्तित्व से प्रेरणा लेने की कोशिश करते हैं। वे बाबा के चरण स्पर्श करते हुए मन में कहते हैं- "हम तो लोगों को बेवकूफ बना-बनाकर परेशान हो जाते हैं और आप हो कि इतनी आसानी से इनको फांस लेते हो। थोड़ा जादू हमको भी सिखा दो, हमारी आमसभा में भी थोड़ी भीड़ आ जाएगी और थोड़े और वोट मिल जाएंगे। आप जैसे परम भ्रष्टाचारी को प्रणाम। हम तो मतलब के लिए धर्म का उपयोग करते हैं, आपने तो धर्म को ही अपना मतलब बना लिया। वाह क्या बात है।"
चलिए अब मैं आप सबसे आज्ञा चाहूंगा। मेरे घर के पास चल रहे सत्संग का आज आखिरी दिन है। सबने अपने स्वार्थ सिद्ध कर ही लिए हैं सत्संग में तो थोड़ा हक तो मेरा भी बनता है ना। वहां आज १०८ परिक्रमा होने हैं। अब मैं मेरी प्रिये के साथ सात फेरे ले पाऊंगा कि नहीं ये तो भगवान ही जानता है लेकिन आज उसके साथ १०८ फेरे तो ले ही लेता हूं। चलिए अब जल्दी चलता हूं क्योंकि यहां तो एक अनार सौ बीमार वाला मामला है।
गुरुवार, अगस्त 26, 2010 |
Category:
व्यंग्य
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comments
Comments (3)
बहुत ही जानदार व्यंग............
अच्छा लिखा हैं.
आह ! लेख पढ़ कर लग रहा है कि बाबा बनना ही ठीक रहेगा.
सारे व्यंग्य लेख्ा में कसाव की भरपूर गुंजाइश है।