भारत के लिए कहा जाता है कि यहां अनेकता में एकता है। सुनने में यह बहुत अच्छा लगता है पर यह सिर्फ उपरी सच है। सच तो यह है कि हम कभी एक थे ही नहीं। हम पहले भी जाति, धर्म, संप्रदाय के नाम पर लड़ते थे और अब भी लड़ रहे हैं। कहने को तो देश ने बहुत तरक्की कर ली है लेकिन असल में हमारे सिर्फ पहनावे में बदलाव आया है। धोती-कुर्ता से पेंट-शर्ट में आ गए हैं लेकिन हमारी सोच वही है। हम आज भी गैर-जरूरी बातों पर लड़ते हैं और मूलभूत समस्याओं को अनदेखा करते रहते हैं। दरअसल मिलकर रहना हमें आता ही नहीं, हमें बांटना ही पसंद है। मुगलों के आने के पहले भी हम आपस में लड़ते थे। समाज छूत-अछूत, ऊंच-नीच में बंटा हुआ था। मुगल शासन के बाद अंग्रेज आए और हम पर राज करने लगे और हम बस आपस में लड़ते ही रह गए। इसी का फायदा अंग्रेजों ने उठाया और १५० साल हम पर राज किया और जब आजादी दी तब भी भारत को दो मुल्कों में बांटकर। जो हिन्दू-मुसलमान देश की आजादी के लिए जाति-धर्म से उठकर साथ लड़ते थे आजादी के समय उन्हीं में फूट डाल दी गई और बन दिया भारत और पाकिस्तान। आजादी के बाद भारत में भी मिलकर रहा जा सकता था लेकिन हमारी तो आदत है बांटने की, हम कैसे साथ मिलकर रह सकते हैं। जाति, भाषा, धर्म के नाम पर कई दंगें हुए, न जाने कितने मासूमों की जान गई लेकिन फिर भी हमने सबक नहीं लिया है। कोई भी स्वार्थी आदमी या संगठन अपने स्वार्थ के लिए नफरत की चिंगारी लगा देता है और हम लोग बिना कुछ सोचे समझे एक-दूसरे का घर जलाने पर उतारू हो जाते हैं। चिंगारी लगाने वाला अपने घर में चैन से बैठकर तमाशा देखता है और हम लोग एक-दूसरे के जान के दुश्मन बने रहते है। इतने सारे दंगे सब इसी सोच का परिणाम है। हम हमेशा से पाकिस्तान और चीन को भारत के लिए खतरा मानते आए हैं लेकिन उससे बड़ा खतरा हमारी आपसी लड़ाई, हमारे भेदभाव जो इस देश को तोड़ रहे हैं। और बहुत से लोग इसमें अपनी वैमनस्यता के जलते हुए तवे पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। राज ठाकरे मराठी मानुस को लेकर राजनीति कर रहा है। तो कोई किसी बात पर फतवा जारी कर रहा है, कोई खलिस्तान की मांग कर रहा है तो किसी को तेलंगाना चाहिए। और भी ऐसे बहुत से अंदरुनी टकराव हमारे समाज और देश में देखने को मिलते हैं। सब बस तोड़ने में लगे हैं, जोड़ने में बहुत कम लोग। और आम जनता तो भेड़चाल की आदि है। जिसने जो कह दिया बस चल पड़ी उसके पीछे। मैं कहता हूं तोड़ दो इस देश को, सब बांट दो इस देश को, जिसका जो राज्य-राष्ट्र बनाना है अलग से बना लो, कोई किसी दूसरे राज्य के लोगों को आने मत दो। वो भी बांटे, तुम भी बांटो, मैं भी बांटता हूं देश को। सब मिलकर देश के इतने टुकड़े कर दो कि पता ही मत चले कि ये कभी भारत था। पर क्या तब हम सब खुश रहेंगे और वो लोग जो स्वार्थ की राजनीति करते हैं। इन सबका फायदा क्या होगा, क्या तब अमन-शांति कायम पाएगी? क्या वहां कोई टकराव नहीं होगा? बांटना किसी चीज का हल नहीं, जोड़ने से ही हम देश को आगे ले जा सकेंगे नहीं तो तो २०२० क्या २२०० तक भी भारत विकसित नहीं हो पाएगा। हम जितना अलग रहेंगे, उतने ही कमजोर रहेंगे। फिर कोई बाहरी ताकत इस बात का फायदा उठाकर हम पर राज करेगी फिर चाहे वो चीन हो या अमेरिका या फिर कोई और। जाति, भाषा, धर्म जैसे मुद्दों को उछालने वाले लोगों को भारत की जनता के भूखे पेट, बेरोजगारी से निराश युवकों के चेहरे, महंगाई से खाली हुई आम जनता की जेब दिखाई नहीं देते?
अब वक्त है अपनी सोच को दुरुस्त करने का, जो भी पार्टी लोगों को बांटने का काम करे, या सामाजिक सदभाव को चोट पहुंचाए फिर चाहे वो भाजपा हो, कांग्रेस हो, सपा हो, एमएनएस हो कोई भी पार्टी या व्यक्ति हो, जनता को ऐसे लोगों का बहिष्कार करना चाहिए और इन्हें जरा भी समर्थन नहीं देना चाहिए क्योंकि ये न किसी का भला नहीं चाहते, ये चाहते हैं तो बस अपना भला।
एक और बात कहना चाहूंगा कि बहुत से ऐसे पढ़े-लिखे गंवार हैं इस देश में जो चुनाव के दिन अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं करते तभी तो मतदान का प्रतिशत ५५-६५ के आसपास ही रहता है। पढ़े-लिखे लोग अपने मताधिकार का इस्तेमाल ज्यादा अच्छे ढंग से कर सकते हैं, अपने विवेक का अच्छी तरह से इस्तेमाल कर सकते हैं। इसलिए अपने अधिकार को पहचानिए और चुनाव के समय ऐसे प्रतिनिधि चुनिए जो देश को जोड़ें, न कि तोड़ें। किसी भी सामाजिक ढांचे में बदलाव रातोंरात नहीं आता लेकिन धीरे-धीरे उसे सुधारा तो जा ही सकता। एक छोटी सी शुरूआत करनी होगी हम सबको अपने-अपने स्तर पर जो देश को एकता के सूत्र में पिरोये और देश को आगे ले जाए।
सोमवार, नवंबर 09, 2009 |
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नजरिया
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