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उधर उनका एक समर्थक राजू जैसे ही अपने घर से शोकसभा में जाने के लिए निकला, पीछे से बीवी ने आवाज दी- "अजी, कहां जा रहे हो? माताजी की तबीयत खराब है जरा डॉक्टर को दिखा दो, कल रात से ही खांस रही हैं।" वह चिढ़ता हुआ बोला- "कितनी बार कहा है अच्छे काम से जा रहा हूं तो पीछे से टोका मत करो। ऐसा करो घर में कोई दवाई रखी हो तो मां को खिला दो। शोकसभा से आते ही उन्हें डॉक्टर के पास ले जाऊंगा। मेरा अभी शोकसभा में जाना बहुत जरूरी है। चुनाव नजदीक हैं, दुख के वक्त मंत्रीजी के साथ रहकर उनकी नजरों में चढ़ना जरूरी है तभी तो पार्टी समिति में कोई अच्छा पद मिलेगा। कब तक यूं ही कार्यकर्ता बना रहूंगा। अब जाओ अंदर।" इतना सुन बीवी इतना अंदर चली गई और दवाई खोजने लगी। दौड़ता-दौड़ता राजू शोकसभा में पहुंचा। जैसे ही पहुंचा भीड़ को देखकर उसकी आंखें फट गईं। यहां तो रोने वालों की लाइन लगी थी। उसका नंबर आते तक कितने ही कार्यकर्ता से सचिव बन जाएंगे और वो कार्यकर्ता का कार्यकर्ता ही रह जाएगा। मंत्रीजी के पीछे टोली बनाकर कार्यकर्ता कोरस में गा रहे थे। उस टोली में श्याम, रवि और किशोर भी थे जिन्होंने उसे कल रात भर दारू पिलाकर टल्ली किया और मंत्रीजी को मक्खन लगाने की जुगत में खुद सुबह सुबह खुद शोकसभा में पहुंच गए। उन तीनों को देख राजू का पारा चढ़ने लगा था। पर वो अब क्या करता इस भीड़ के छंटने का इंतजार भी नहीं किया जा सकता था क्योंकि तब तक मंत्रीजी कितनों के मक्खन में पूरी तरह फिसल चुके होते। इसी पशोपेश में उसे एक तरीका सूझा। उसने दो कदम पीछे लिए और यूसेन बोल्ट का रिकार्ड तोड़ते हुए मेन गेट से माताजी की फोटो तक की दूरी मात्र ८ सेकंड में पूरी कर ली। इसी फर्राटा दौड़ के दौरान उसने कितनों की साडि़यों पर कीचड़ छींटे और कईयों के कुर्ते मैले कर दिए लेकिन इन सबके की परवाह न करते हुए वह सीधा माताजी के फोटो के सामने आकर रुक गया। उसकी एक्सप्रेस गति से माताजी की फोटो भी हिल गई और पास में लगे नारियल और अगरबत्ती भी। किसी तरह उसने अगरबत्ती और नारियल को व्यवस्थित रखने की कोशिश की और फिर गला फाड़-फाड़कर रोने लगा। रोते-रोते वह उन कार्यकर्तां की टोली की तरफ भी देखने लगा, शायद यह जताना चाह रहा था कि "जाओ तुम लोग सिंगल-सिंगल रन लो मैंने तो सीधा छक्का मार दिया है"।
तभी मंत्रीजी आए और उसे उठाते हुए धीरे से कान में बोले- "तुम्हें दुख है मुझे पता है लेकिन जाते हुए मेरे साले से जरूर मिलते जाना। अपनी फर्राटा दौड़ के दौरान तुमने उसके कुर्ते और उसकी पत्नी की साड़ी पर जो कीचड़ की पेंटिंग की है, उसका इनाम देने के लिए वो तुम्हारा इंतजार कर रहा है।" यह सुनकर राजू का गला सूख गया। छुपती नजरों से उसने गेंडे जैसे मंत्रीजी के साले को देखा जिसकी आंखें गुस्से से लाल थी। यह सब देख कार्यकर्ताओं की टोली धीरे से मुस्कुराई और फिर पहले की तरह अपनी रुदाली एक्सप्रेस शुरू कर दी। यह टोली रोने में रुदालियों को भी मात दे रही थी। उस टोली को पता था कि सिंगल-सिंगल लेकर अर्धशतक बनाने में ही समझदारी है, राजू की तरह छक्का मारने पर कैच आउट होने का डर है।
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मंत्रीजी सोच में डूबे थे तभी धीर-गंभीर अंदाज में पार्टी अध्यक्ष का आगमन हुआ। उन्होंने बिना किसी औपचारिकता निभाए और रोने -गाने में समय व्यर्थ किए माताजी के फोटो के समक्ष हाथ जोड़े और मंत्रीजी की तरफ मुखातिब हुए। मंत्रीजी के पास जाकर बोले- "आपकी माताजी के निधन का हमें दुख है। पिताजी के जाने के बाद वही आपका साया थी लेकिन उनका आशीर्वाद आपके साथ हमेशा रहेगा। और उन्हीं के आशीर्वाद से खतरे में पड़ी आपकी सीट बच गई। पार्टी ने निर्णय लिया है कि आने वाले चुनाव में आप अपनी इसी सीट से लड़ेंगे। अपना खोया हुआ जनाधार पाने का यह स्वर्णिम मौका है। माताजी के देहांत के बाद आपको भरपूर सांत्वना वोट मिलेंगे। इसलिए कल से ही चुनाव की तैयारी करते हुए जनसम्पर्क शुरू कर दीजिए। " मंत्रीजी यही बात तो सुनना चाहते थे। उन्होंने पार्टी अध्यक्ष को धन्यवाद दिया और पलटकर अपनी माताजी की फोटो की तरफ देखा। उनकी आंखों में आंसू थे- खुशी के, गम के और ग्लानि के। ग्लानि के आंसू इसलिए क्योंकि शायद वह अपनी माता से मन ही मन कह रहे थे- "मुझे माफ कर देना। लेकिन इस चुनाव को जीतने के लिए तेरी मौत का भी तमाशा बनाना पड़ेगा।" मंत्रीजी पार्टी अध्यक्ष को बाहर ले गए और बात को आगे बढ़ाने लगे। शाम हो चुकी थी। लोग अब वापस जाने लगे थे। माताजी की तस्वीर पर चढ़ा हार गिर चुका था और उनके सामने जल रहा दीया भी बुझ चुका था। लेकिन अब उसे ठीक करने वाले कोई नहीं था क्योंकि शोकसभा में आए लोगों के अपने-अपने काम हो चुके थे।
गुरुवार, जुलाई 15, 2010 |
Category:
व्यंग्य
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