यूं तो सामान्य आदमी के शरीर में २०६ हड्डी होती है लेकिन बंधुवर सचेत हो जाइए। एक एक्सट्रा हड्डी भी हमारे शरीर में न जाने कबसे चिपकी बैठी है और हमें इसका पता ही नहीं। या फिर पता होने के बाद भी हम इसे अपने  शरीर का अंग नहीं मानते। परिस्थिति विकट है। यह पोर्टेबल २०७वीं हड्डी कईयों के शरीर से तो चौबीसों घंटे चिपके रहती है और जिनसे नहीं चिपकी है उनसे भविष्य में चिपक ही जाएगी।  ये हड्डी जो पहले मेहमान के तौर पर आई थी तो अब मानो शरीर की परमनेंट मेंबर ही बन गई है। परमनेंट मेंबर बन गई कोई बात नहीं, क्योंकि मेहमान तो भगवान होता है लेकिन इसने तो जैसे राजा की पदवी हासिल कर ली है। शरीर के सभी अंग इसी के सेवा में लगे रहते हैं। आंखें इसे ही ढूंढती हैं, हाथ इसे छूने बेकरार रहते हैं। मुझे ऐसा लगने लगा है कि मैंने इस हड्डी की कुछ ज्यादा ही बुराईयां कर दी है। हे भगवान, ये तो घोर पाप हो गया मुझसे। जिस हड्डी का मैं ५-६ साल से भरपूर दोहन कर रहा हूं, आज उसी की बुराई कर दी। मैं अनजाने ही एहसानफरामोशों की फेहरिस्त में शामिल हो गया।


खैर गलती की है तो सुधारना भी पड़ेगा। बुराईयां बहुत हुई, पर इसकी खूबियां भी बैं.। प्लास्टिक व मेटल की बनी यह पोर्टेबल हड्डी चपटी, लंबी, स्लाइड, टच आदि विविध रुपों में आती है, बिलकुल पतिव्रता पत्नी की तरह जैसा आप चाहें वैसे ढल जाती है । पर एक बार यह आपसे चिपक गई तो आप लाख जतन कर लें ये हटेगी नहीं। इस हड्डी को मैंने छह साल पहले खुद से चिपकाया पर मुझे इसका अहसास चंद दिनों पहले कराया हमारे मित्र ने। हम दोनों गाड़ी पर सैर करने निकले। मित्र महोदय फरार्टे से गाड़ी चला रहे थे और हम उतने ही फर्राटे से अपने मोबाइल पर मैसेज टिपटिपा रहे थे। हमारा मैसेज टिपटिपाना शायद हमारे मित्र को पसंद नहीं आया और उन्होंने गाड़ी का एक्सीडेंट कर दिया। धड़ाम.... की आवाज के साथ हम दोनों सड़क पर गिरे लेकिन हमारे हाथ से मोबाइल अलग नहीं हुआ। फिर हाथ में मोबाइल पकड़े-पकड़े ही हमने गाड़ी को उठाया। अबकी बार हमारा मित्र चिल्लाते हुए बोला- ये मोबाइल तुम्हारे हाथ से अलग होगा कि नहीं। या ये तेरे शरीर की २०७वीं हड्डी है जो हाथ से अलग ही नहीं होती।


मैं अपने जिस मित्र के दिमाग को सूख चुकी नदी समझा करता था उसमें से इतने अनमोल मोती जैसे वचन सुनकर मुझे बड़ा अचरज हुआ। सहसा मुझे अपने मित्र में भगवान नजर आने लगे , क्योंकि ऐसा ज्ञान तो भगवान ही दे सकते हैं। मित्र देवो भवः सुना तो था लेकिन तब यकीन भी हो रहा था।  मैंने श्रद्धाभाव से अपने मित्र की तरफ देखा और उसके चरणस्पर्श करते हुए उसे धन्यवाद दिया। इसके बाद मैंने २०७वीं हड्डी की पदवी पाने वाली अपनी मोबाइल तरफ देखा। मैं किसी बिछड़े हुए प्रेमी की तरह उसे निहार रहा था, और मेरी मोबाइल मुझे एकतरफा प्रेम करने वाली प्रेमिका की तरह, जिसे विश्वास था कि ५-६ साल बाद उसका बाद उसका प्यार लौटेगा।


डार्विन के सिद्धांत के अनुसार आने वाले समय में वैसे भी यह इंसान के शरीर की २०७वीं हड्डी बन ही जाएगी इसलिए काल करै सो आज कर की तर्ज पर हमने २४घंटे खुद से चिपके रहनी वाली मोबाइल को २०७वीं हड्डी मान ही लिया। डार्विन महोदय कह गए हैं कि कोई भी जीव माहौल व जरुरत के हिसाब से खुद को ढाल लेता है। समय के साथ अनुपयोगी अंग उसके शरीर से हटते जाते हैं और जिस अंग या चीज की उसे ज्यादा जरुरत  होने लगती है वह विकसित होने लग जाते हैं। मनुष्यों के पूर्वजों की के पास लंबी पूंछ थी व दिमाग आकार में कम था वहीं आज के मनुष्य में पूंछ नदारद है और दिमाग जरुरत से ज्यादा तेज हो गया है।  इस आधार हम कह सकते हैं कि आने वाले समय में ये हमारे शरीर की स्थायी सदस्य बन ही जाएगी। बंधुवर, हमारी २०७वीं हड्डी तो बढ़िया काम कर रही है, अगर आपकी २०७वीं हड्डी आपको तकलीफ दे तो आप २०७वीं हड्डी रोग विशेषज्ञ डॉ. सुमित से संपर्क साध सकते हैं। अब अपने ब्लॉग में अपना ही प्रचार न करो ये अच्छा थोड़ी न  लगता है...।