तो भइया, आखिरकार रुपए को उसका चिन्ह मिल ही गया। इतने लंबे इंतजार के बाद रुपए को उसकी पहचान मिलना सचमुच खुशी की बात है। और जैसा कि भारत जैसे खुशमिजाज देश में अक्सर होता है, खुशियां मनाई जा रही हैं। जिन्हें इस बारे में पता है वो भी खुश है, और जिन्हें नहीं पता वे भी खुश हैं। और खुश हो भी क्यों न। अमीर इसलिए खुश है क्योंकि जिस पैसे में वो तैरता है उसे पहचान मिल गई तो गरीब इसलिए खुश है क्योंकि खुश रहना उसने अपनी आदत बना ली है, चाहे सोना २०,००० पहुंचे या मुद्रास्फीति १० का आंकड़ पार कर जाए गरीब अपने हाल पर खुश होने सीख लेता है। मगर सरकार की नीतियों और महंगाई की मार से सबसे ज्यादा पीटने वाला मध्यम वर्ग तो कुछ ज्यादा ही खुश है। उसे शायद यह भ्रम हो गया है कि रुपए का चिन्ह बन जाने से महंगाई में कुछ कमी आएगी। शायद रुपए का चिन्ह मिल जाने की खुशी में सरकार उसे महंगाई पर डिस्काउंट देगी या फिर एक दिन के लिए सस्ता पेट्रोल देगी। वर्माजी की पत्नी को जैसे ही पता चला कि रुपए को चिन्ह मिल गया है उन्होंने घर में हलवा-पुरी बना दिया। शायद उन्हें उम्मीद थी कि इससे उनके पति की तनख्वाह बढ़ेगी। थके-हारे वर्माजी जब घर आए तो हलवे की खुशबू से तुरंत चैतन्य हो गए। अपनी पत्नी से बोले- "अपने मायके से लाई हो क्या हलवा?" पत्नी मुस्कुराते हुए बोली-"नहीं जी, घर में ही बना।" इतना सुनते ही वर्माजी के होश फाख्ते हो गए, वे गरियाने लगे- "अब पूरे हफ्ते खिचड़ी से ही काम चलाना पड़ेगा क्योंकि हफ्ते भर का तेल तो तुमने आज हलवा-पूरी पर ही उड़ेल दिया। अरे कभी अपने मायके से भी कुछ मंगवा लिया करो। पिछले महीने ही तुम्हारे मायकेवालों ने हमारे यहां रुककर अपना पूरे महीने का राशन बचाया है और तुम हो कि...।" पत्नी भी उखड़ते हुए बोली- "तो मैं और क्या करती। मुझे लगा रुपए को उसका चिन्ह मिल गया है तो शायद तुम्हारा प्रमोशन हुआ होगा या फिर तनख्वाह तो बढ़ी ही होगी, इसी खुशी में ये सब बनाया था।" वर्माजी समझाते हुए बोले- "अरी भाग्यवान! जिस रुपए के लिए हम रोज रोते हैं, सरकार ने उसका चिन्ह बना दिया है ताकि अब हम खाली बैठकर न रोएं, बल्कि रुपए के चिन्ह को फोटो फ्रेम कराकर दीवाल पर लटकाकर रोएं। समझी।"
वैसे रुपए का चिन्ह मिल जाने से बहुत लोगों को फायदा हुआ है। पहला तो यह कि मुझ निठल्ले को कुछ काम मिला और लिखने को कुछ सूझा वरना इतने दिनों से दिमाग में कोई विचार दस्तक ही नहीं दे रहा था। दूसरा यह कि मेरे वीरान पड़े मोहल्ले में भी कुछ जान आई। जिस दिन रुपए का चिन्ह जारी हुआ उस दिन शाम को चौक पर बूढ़े-जवान सब मिलकर अपनी-अपनी झाड़ने लगे। मैं चौक पर ही खड़ा सबको झेल रहा था। रामू बोला- "अरे मुझे तो कल पता चला कि सरकार ने कोई प्रतियोगिता भी रखी थी रुपए के चिन्ह के डिजाइन के लिए। ये भी कोई डिजाइन बनाई है। अगर मैं बनाता तो लगता कि कुछ चिन्ह है। अगर मुझे पता चलता इस प्रतियोगिता का तो समझो वो ढाई लाख तो मेरे ही थे।" इतने में माखन बोला- "अरे जो डिजाइन बना है वैसे तो मेरा ५ साल का बेटा सोनू रोज बनाता है। हिंदी वर्णमाला लिखते समय "र" के बीच में डंडी लगा देता है और उसकी टीचर रोज उस पर लाल गोला बना देती है। उस मैडम को क्या पता था कि वही डंडी लगा "र" रुपए का चिन्ह बनेगा। मुझे भी अपने बेटे की कॉपी दिल्ली भिजवा देनी चाहिए थी। क्या पता मेरा बेटा ही मुझे ढाई लाख कमाकर दे देता।" इतने देर से चुप बैठे-बैठे घनसू के पेट में भी दर्द होने लगा था। इस बहस में वह भी कूद पड़ा। घनसू बोला-"कमाल की बात है, मुझे तो कल ही पता चला कि रुपए को INR कहते हैं। मैं इतने दिन से सोच रहा था कि INR कोई जासूसी एजेंसी-वेजेंसी होगी। वैसे हमने तो पहले ही रुपए को कई उपनाम दे रखे थे। जैसे- रोकड़ा, हरियाली, लक्ष्मी, खर्चा-पानी, गांधीजी का फोटो छपा होने की वजह से गांधी। इतने उपनामों से तो हमारा काम चल जाया करता था इसलिए रुपए को चिन्ह देने की जरूरत ही नहीं थी। हम तो उंगलियां के इशारे से समझ जाते हैं कि कितनी रिश्वत लेनी है और कितनी देनी है।"
बहस का रंग अभी चढ़ने ही लगा था कि शाम को आफिस से छूटकर आ रहे एक अधिकारी जो घनसू के मित्र थे वहां रुक गए। वैसे ये अधिकारी आफिस तो जाते नहीं थे पर आज शायद मूहूर्त निकला था इसलिए आफिस चले गए। कार का गेट खोलते हुए वे उतरे और फिर आंखें से काला चश्मा उतारते हुए वे प्रस्तुत हुए। पान दबाते हुए बोले-"भई या तो सरकार पगला गई है या उसे पैसे मुफ्त बांटने का शौक है। तभी तो जनता से रुपए का डिजाइन मांग रही थी। अरे महीने में २९ दिन पैसे को रोने वाला मध्यम वर्ग और पैसे से दूर-दूर तक वास्ता न रखने वाले गरीब क्या खाक रुपए का चिन्ह बनाकर देंगे। अरे हमसे कहा होता हम बना देते डिजाइन और इसी बहाने हमको भी ढाई लाख मिल जाते वो भी व्हाइट मनी। रुपए को तो हम जैसे लोग ही अच्छी तरह से पहचान सकते हैं। अरे भई, हमारा दिन-रात उठना बैठना रहता है रुपयों के साथ। वरना २० हजार की पगार में कोई ऐसे ही थोड़ी ना ३ बंगले, ६ कार, हजारों एकड़ जमीन, नौकर-चाकर वगैरह-वगैरह का मालिक बन जाता है। रुपयों और हमारा तो नजदीक का रिश्ता है, एकदम करीबी। हम तो एक जिस्म, दो जान है। हम तो अपनी अर्धांगिनी को भूल जाएं पर सर्वांगिनी "रुपए" को नहीं भूल सकते।" पान की पीक थूकते हुए वे आगे बोले-"रुपए का डिजाइन हम जैसे रुपएदार लोग ज्यादा अच्छे से बना सकते थे न कि कोई और। हमारा डिजाइन ऐसा होता- "र" अक्षर के दोनों तरफ हाथ होते एक रुपए देते हुए और एक लेते हुए। तब लगता रुपए का चिन्ह। तब तो पता लगता कि देश में रुपए का आदान-प्रदान सुचारू रूप से चल रहा है और चलता रहेगा। दुनिया हमको गरीब समझती है पर हम हैं नहीं। दुनिया को पता चल जाता कि भारत में पैसों का प्रवाह कितना तेज है। मुझे ही देखिए मैं साल में ५-१० बार अमेरिका, ब्रिटेन, स्वीट्जरलैंड घूमकर आता हूं क्योंकि मेरे पास पैसे हैं लेकिन वहां के लोग क्या आते हैं भारत साल में इतनी बार। नहीं ना, क्योंकि वे गरीब हैं और घूमने-फिरने के लिए दस बार सोचते हैं।"
अपनी रईसीकथा सुनाने के बाद वे कुछ देर रुके। फिर बोले- "देखिए इस रुपए के चिन्ह को। इस रुपए के चिन्ह में तो बस "र" के बीच में एक रेखा खींच दी है। ऐसा लग रहा है जैसे कि ये महंगाई की रेखा है जो पैसों को आने ही नहीं दे रही। इस चिन्ह में तो रुपए का नामोंनिशान ही नहीं है। अरे डिजाइन तो हम बनाते.....हम..." बुदबुदाते हुए वे कार में बैठे और काला चश्मा लगाकर गाड़ी चालू कर चल दिए।
जब से रुपए का चिन्ह जारी हुआ है, तब से इस बात पर न जाने इतनी बहस हो चुकी है, कितने लेख लिखे जा चुके हैं, ऐसे में मेरा खुरापाती दिमाग कैसे चुप रह सकता था। अगले दिन मैंने भी क्लास में अपने टीचर पर सवाल दाग दिया कि रुपए का चिन्ह बनाने का फायदा क्या होगा? टीचर बोले-" बेटा, रुपए का चिन्ह बन जाने से अब रुपए को अंतर्राष्ट्रीय पहचान मिल जाएगी। अब वो यूरो, डालर येन जैसी मुद्राओं की श्रेणी में आ चुका है जिनके अपने पहचान चिन्ह हैं।" मैं उनकी बात बड़े ध्यान से सुन रहा था इसलिए नहीं कि कुछ समझ सकूं बल्कि इसलिए कि दूसरा प्रश्न पूछ सकूं और कालेज में जमा की गई फीस को टीचर का दिमाग खाकर वसूल सकूं। उनके रुकते ही मैंने फिर पूछा- "लेकिन इससे फायदा क्या होगा?" टीचर अब समझाते हुए बोले- "बेटा इधर आओ। तुमने महंगे-महंगे कपड़ों के शोरूम देखे हैं।" मैंने कहा-"हां देखे हैं।" टीचर बोले- "देखें हैं लेकिन कभी वहां से कपड़े खरीदे हैं। नहीं ना। वही तो मैं समझा रहा हूं कि इन बड़े-बड़े शोरूम को देखकर तुम खुश हो सकते हो, ब्रांडेड कंपनियों के "मोनो" को देखकर खुश हो सकते हो, शोरूम के बाहर लगी मेनीक्वीन पर टंगे कपड़ों को तुम्हारे ऊपर कैसे लगेगा सोच सकते हो लेकिन उसे खरीद नहीं सकते क्योंकि जेब गरम नहीं है। बस उसी तरह सरकार ने रुपए का चिन्ह (मोनो) बना दिया है ताकि आम जनता रुपए के चिन्ह को देखकर ही खुश हो ले कि हमारा देश बहुत तरक्की कर रहा है और इसका आर्थिक तंत्र बहुत मजबूत है वगैरह-वगैरह ।पर न तो महंगाई कम होने वाली है न टमाटर-सब्जी-तेल के दाम कम होंगे। न तो रिश्वतखोरी रुकने वाली है न भ्रष्टाचार। इसलिए फालतू सवाल पूछना बंद करो और अपनी पढ़ाई करो वरना तुम्हारे रिजल्ट पर चिन्ह होगा "फेल" का।"
टीचर की करेले जैसी जुबान से ऐसा कड़वा सच सुनने के बाद मैं बाहर निकला। टीचर के भाषण से मुझे न पहले फर्क पड़ता था और न अब पड़ा। मैने डी.उदय कुमार का नाम अपने कॉपी में उतारा और याद करने लगा क्योंकि मुझे पता है किसी न किसी प्रतियोगी परीक्षा में यह सवाल जरूर पूछा जाएगा कि रुपए का चिन्ह किसने डिजाइन किया, तब कम से कम मैं एक सही उत्तर तो लिख ही सकता हूं। कॉलेज से निकला तो बाहर अपना गैंग था और वहां पर भी रुपए के चिन्ह पर ही बात चल रही थी। मुझे इस विषय में और बातें कर अपने दिमाग का अचार बनाने का कोई शौक नहीं था। मैं घर की तरफ चल दिया सोचा थोड़ा खाकर सुस्ता लिया जाए क्योंकि शाम को कोई न कोई फिर आकर मुझसे रुपए के डिजाइन के बारे में बातें कर मेरे दिमाग का डिजाइन खराब करेगा।
रविवार, जुलाई 18, 2010 |
Category:
व्यंग्य
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