भारत
में बांटने का बहुत ही समृद्घ इतिहास रहा है। सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक
मोर्चों पर हम बंटे हुए ही पाए जाते हैं। कुछ आधुनिक चिंतकों ने भारत और
इंडिया को भी बांट दिया है। एक तरफ नेता-अधिकारी पैसों की बंदरबांट में लगे
रहते हैं तो दूसरी तरफ जरूरतमंद जनता सुविधाओं की बाट ही जोहते रहती है।
इस बंटने-बंटाने में देश का बंटाधार हो रहा है। खैर यहां मैं जिस बंटवारे
का जिक्र कर रहा हूं उसका इससे कोई
ताल्लुक नहीं है, लेकिन क्या करें हम चिंतक प्रवृत्ति के मारे हैं और देश
की समस्याओं के बुलबुले हमारे मन में समय-समय पर फूटते रहते हैं।
मुद्दे की ओर वापस लौटते हुए मैं बताना चाहूंगा कि हमारे शहर रायपुर में आईपीएल के दो मैच हुए आईपीएल का खुमार कह लें या बुखार, फिलहाल सब इसकी चपेट में हैं। इस मर्ज के मरीज और डॉक्टर हम खुद ही हैं। इस आईपीएल ने शहर को दो वर्गों में बांट दिया - आईपीएल एंड आईपीएल यानी कि इंडियन प्रसन्न लीग व इंडियन परेशान लीग। इंडिनय प्रसन्न लीग के लोगों की पहचान है होठों पर चस्पी उनकी मुस्कान। जिसकी मुस्कान जितनी लंबी समझो उसने उतनी ही ज्यादा व महंगी टिकट ले रखी थीं। खुशी से दमकते इन चेहरों को आप शहर के किसी भी कोने में देख सकते हैं, मुस्कुराने का यह रोग कंजक्टीवायटिस की तरह फैल चुका है। खैर इन चलते-फिरते प्रकाशपुंजों को देखकर निगम भी रात में स्ट्रीट लाइट बंद करने पर विचार कर सकती है।
इंडियन प्रसन्न लीग के बारे में बात करने के बाद इंडियन परेशान लीग की बात करना जरूरी हो जाता है क्योंकि इनकी संख्या बहुतायत में है। ये येन-केन कारणों से मैच के टिकट पाने से वंचित रह गए और इनके लिए अंगूर खट्टे ही रह गए। इन निस्तेज व मुरझाए हुए चेहरों को देख सरप्लस बिजली वाले छत्तीसगढ़ राज्य को भी अतिरिक्त बिजली आयात करना पड़ सकता है। मेरे आलोचनात्मक व ईष्र्यालु रवैये से आप समझ ही गए होंगे कि मैं भी इंडियन परेशान लीग का ही खिलाड़ी हूं। दरअसल भारतीय समय प्रणाली पर अंधा विश्वास मुझे दगा दे गया। जब टिकट बंटने शुरु हुए तो हम इंडियन टाइम का लिहाज कर देर से पहुंचे लेकिन हमें इस बात का अंदाजा नहीं था कि पाश्चात्य संस्कृति में ढल रहे प्रदेशवासी इतने अंग्रेजीदां हो जाएंगे कि समय पर पहुंचकर टिकट हथिया लेंगे। इंडियन परेशान लीग के बाकी सदस्यों के लिए तो फिर भी अंगूर खट्टे थे लेकिन हमें तो अंगूर के पेड़ तक देखना नसीब नहीं हुआ।
टिकट लेने से कोई मिनटों से चूका तो कोई दिनों से, पर किसी को कभी भी चूूका हुआ नहीं मानना चाहिए। राजनीति में सत्ता पक्ष व विपक्ष के साथ होती हैं कुछ उछलती-कूदती पार्टियां जो किसी तरह सत्ता पक्ष में घुसने की जुगत में रहती हैं। एक साल इन्हें जुगत बनाने में बीत जाता है और बाकी के चार साल ये अंदर-बाहर होते रहते हैं। इन जीवट प्राणियों से दुष्प्रेरणा लेते हुए हम भी दलबदल में जुट गए हैंं। बस किसी तरह टिकट लेकर हम भी इंडियन परेशान लीग से इंडियन प्रसन्नता लीग में घुस ही जाएंगे। दल बदलने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं और मुझे विश्वास है अगले साल तक मैं इतने तो पापड़ बेल ही लूंगा कि इंडियन प्रसन्नता लीग में एंट्री कर सकूं, तब तक यही मुहावरा मेरा सहारा है- देर आयद दुरुस्त आयद, पर कैसे भी टिकट आयद।
मुद्दे की ओर वापस लौटते हुए मैं बताना चाहूंगा कि हमारे शहर रायपुर में आईपीएल के दो मैच हुए आईपीएल का खुमार कह लें या बुखार, फिलहाल सब इसकी चपेट में हैं। इस मर्ज के मरीज और डॉक्टर हम खुद ही हैं। इस आईपीएल ने शहर को दो वर्गों में बांट दिया - आईपीएल एंड आईपीएल यानी कि इंडियन प्रसन्न लीग व इंडियन परेशान लीग। इंडिनय प्रसन्न लीग के लोगों की पहचान है होठों पर चस्पी उनकी मुस्कान। जिसकी मुस्कान जितनी लंबी समझो उसने उतनी ही ज्यादा व महंगी टिकट ले रखी थीं। खुशी से दमकते इन चेहरों को आप शहर के किसी भी कोने में देख सकते हैं, मुस्कुराने का यह रोग कंजक्टीवायटिस की तरह फैल चुका है। खैर इन चलते-फिरते प्रकाशपुंजों को देखकर निगम भी रात में स्ट्रीट लाइट बंद करने पर विचार कर सकती है।
इंडियन प्रसन्न लीग के बारे में बात करने के बाद इंडियन परेशान लीग की बात करना जरूरी हो जाता है क्योंकि इनकी संख्या बहुतायत में है। ये येन-केन कारणों से मैच के टिकट पाने से वंचित रह गए और इनके लिए अंगूर खट्टे ही रह गए। इन निस्तेज व मुरझाए हुए चेहरों को देख सरप्लस बिजली वाले छत्तीसगढ़ राज्य को भी अतिरिक्त बिजली आयात करना पड़ सकता है। मेरे आलोचनात्मक व ईष्र्यालु रवैये से आप समझ ही गए होंगे कि मैं भी इंडियन परेशान लीग का ही खिलाड़ी हूं। दरअसल भारतीय समय प्रणाली पर अंधा विश्वास मुझे दगा दे गया। जब टिकट बंटने शुरु हुए तो हम इंडियन टाइम का लिहाज कर देर से पहुंचे लेकिन हमें इस बात का अंदाजा नहीं था कि पाश्चात्य संस्कृति में ढल रहे प्रदेशवासी इतने अंग्रेजीदां हो जाएंगे कि समय पर पहुंचकर टिकट हथिया लेंगे। इंडियन परेशान लीग के बाकी सदस्यों के लिए तो फिर भी अंगूर खट्टे थे लेकिन हमें तो अंगूर के पेड़ तक देखना नसीब नहीं हुआ।
टिकट लेने से कोई मिनटों से चूका तो कोई दिनों से, पर किसी को कभी भी चूूका हुआ नहीं मानना चाहिए। राजनीति में सत्ता पक्ष व विपक्ष के साथ होती हैं कुछ उछलती-कूदती पार्टियां जो किसी तरह सत्ता पक्ष में घुसने की जुगत में रहती हैं। एक साल इन्हें जुगत बनाने में बीत जाता है और बाकी के चार साल ये अंदर-बाहर होते रहते हैं। इन जीवट प्राणियों से दुष्प्रेरणा लेते हुए हम भी दलबदल में जुट गए हैंं। बस किसी तरह टिकट लेकर हम भी इंडियन परेशान लीग से इंडियन प्रसन्नता लीग में घुस ही जाएंगे। दल बदलने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं और मुझे विश्वास है अगले साल तक मैं इतने तो पापड़ बेल ही लूंगा कि इंडियन प्रसन्नता लीग में एंट्री कर सकूं, तब तक यही मुहावरा मेरा सहारा है- देर आयद दुरुस्त आयद, पर कैसे भी टिकट आयद।
गुरुवार, मई 02, 2013 |
Category:
व्यंग्य
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