'टिप्पणी' वैसे तो है बहुत छोटा सा शब्द लेकिन अपने में जैसे पूरे संसार को समेटे हुए है। एक समय लोग टिप्पणी से दूर भागा करते थे। लोगों द्वारा की गई टिप्पणियां रास नहीं आती थी लेकिन अब जमाना बदल गया है । आधुनिक युग है, ट्विटर और ब्लॉगिंग का जमाना है, टिप्पणियों का खजाना है। अगर आप पर टिप्पणी नहीं होती मतलब आपके फालोवर्स नहीं यानी कोई पूछ-परख नहीं। मतलब साफ है आप जमाने के साथ नहीं बल्कि सालों पीछे चल रहे हैं। अब बेचारे प्यारेलालजी को ही ले लीजिए। ये दस वर्ष पहले कवि थे, साहित्यकार थे, रचनाकार थे। इन्होंने एक से बढ़कर दर्दीले शायरी, रसहीन कविताएं, बेसिर-पैर की कहानियां लिखी लेकिन किसी ने इनकी कद्र नहीं की। लिखने के इनके नैसर्गिक गुण की इस तरह अवज्ञा होते देख इनका दिल पीड़ा से भर उठता था। कोई एक टिप्पणी ही कर देता, तारीफ के दो शब्द ही कह देता इनका दिल बाग-बाग हो जाता, लेकिन इस निष्ठुर समाज ने इनके दिल के बाग को बसने ही नहीं दिया। प्यारेलालजी नित नए जुगाड़ करते अपनी कविताएं पढ़वाने के- कभी दोस्तों को बार में टल्ली होते तक पिलाते ताकि उन्हें श्रोता मिल सके लेकिन दोस्त टल्ली होकर वहीं सो जाते और कोई श्रोता न बचता। कभी वेटर को टिप देने के बहाने अपनी कविता झेलाने की कोशिश करते लेकिन वह भी चपल चीते की तरह टिप लेकर फरार हो जाता। इसके बाद प्यारेलालजी ने दूसरा पैंतरा अपनाया। अब वे मंदिर में भजन के बहाने जाने लगे और धीरे से अपनी कविताएं की पर्चियां बंटवाने लगे लेकिन लोगों ने इसे भगवान की छपवाने की चिट्ठियां (वही ५१ लोगों को यह पर्ची बांटो वाली चिट्ठियां) समझकर लेने से इनकार कर दिया। बेचारे प्यारेलालजी यहां भी उनको टिप्पणीविहीन रह गए। अब वे घर के पास चौक में खड़े होकर श्रोता पकड़ने लगे। हर आने-जाने वाले से जबरदस्ती बात करते और बीच में अपनी एक कविता उसको चिपका देते। लोगों ने इनके खौफ से उस गली में घुसना बंद कर दिया। हर गली में इन चिपकू कवि महोदय के पोस्टर चस्पा दिए गए कि इनसे बचकर रहें ये प्राणघातक और समयनाशक कवि हैं, ये कहीं भी, कभी भी आपको पकड़ सकते हैं। अंत में प्यारेलालजी ने घर में ही श्रोता तलाशने शुरू कर दिए बीवी, बच्चों और मेहमानों तक को नहीं बख्शा पर यहां भी उन्हें टिप्पणी नसीब नहीं हुई। आखिर में जब इनकी श्रीमतीजी ने इनको तलाक की धमकी दी तब कहीं जाकर ये माने और दस वर्ष पहले साहित्य जगत से संन्यास लेकर साहित्य और लोगों दोनों को राहत दी।
लंबी शांति आने वाले तूफान का संकेत होती है। दस साल तक अपने मुंह और हाथ को बांधकर रखे प्यारेलाल जी के अंदर का लेखक जोर मारने लगा था। वे एक बार फिर अपने विचारों से समाज को हिला देना चाहते थे। लेखक प्यारेलाल नामक तूफान बस आने ही वाला है। मगर कैसे? ये यक्ष प्रश्न प्यारेलालजी के सामने आ खड़ा हुआ। टिप्पणी प्राप्त करने के पुराने सारे पैंतरे फेल हो चुके थे। अगर इस बार भी एक भी टिप्पणी हासिल नहीं हुई तो जीवन निरर्थक हो जाएगा। इसलिए उन्हें वर्तमान तकनीकी युग में तकनीक से हाथ मिलाया। झट से एक कम्प्यूटर खरीद लाए और कवि-लेखक का चोला उतारकर ब्लॉगर का चोला पहन लिया। वैसे 'ब्लॉगर' बोलने में भी बड़ा स्टायलिश लगता है, है ना। तो मैं बात कर रहा था प्यारेलालजी की। उन्होंने झटपट अपना ब्लाग बनाया और एक पोस्ट लिख दिया। अब बारी थी उस सुनहरे पल की 'टिप्पणी' की।' लेकिन टिप्पणी तो तब आएगी ना जब किसी को पता होगा कि इन्होंने आज ब्लाग पर तूफान मचाया है। इसलिए इन्होंने प्रचार की शुरूआत घर से की और रसोई में खाना बना रही श्रीमतीजी को जबर्दस्ती अपना ब्लाग पढ़वाने लगे। वहां रसोई में खाना जल रहा था इसलिए श्रीमतीजी ने बिना पढ़े ही टालने के मकसद से 'अच्छा लिखा है' कहकर फिर रसोई में चली गई। प्यारेलालजी को पहली टिप्पणी मिल ही गई पर मन अब भी असंतुष्ट था। जैसे चातक पक्षी की प्यास सिर्फ मेघ की बूंदों से बूझती है उसी तरह एक सच्चे ब्लागर की टिप्पणियों की प्यास सिर्फ टाइप किए गए टिप्पणियों से ही बुझती है। मुख से की गई टिप्पणियां यह प्यास नहीं बुझा सकती। लिखित टिप्पणी होने से लोगों को साबित किया जा सकता है कि 'देखिए, हमारे लेख भी पढ़े जाते हैं नेट पर'। इसीलिए अब उन्होंने जबरन अपने पाठक बनाने शुरू कर दिए। उन्होंने घर की आयाबाई, दूधवाला, धोबी से लेकर वॉचमैन तक के ईमेल आईडी बना दिए और उन्हें कम्प्यूटर सिखा दिया ताकि उनके पोस्ट पर कम से कम इनकी टिप्पणियां तो आ ही जाएंगी। लेकिन हाय री किस्मत! ये लोग भी एहसानफरामोश निकले। किसी ने भी टिप्पणी नहीं की। आयाबाई बस आरकुटिंग करती रहती, धोबी मैट्रीमोनी साइट सर्च मारता रहता और वाचमैन तो इससे भी बढ़कर पोर्न साइट्स में डूबा रहता। किसी को इतनी भी फुर्सत नहीं कि प्यारेलाल जी का दुख समझे और टिप्पणी देकर उनके सूने ब्लाग को हरा-भरा कर दे।
ब्लागर को ढीठ होना चहिए। और प्यारेलालजी भी कम ढीठ नहीं थे। उन्होंने अपने ब्लाग को प्रचारित करने का दूसरा तरीका खोज निकाला। उन्होंने चिट्ठियों में अपना ब्लाग एड्रेस लिखकर मोहल्ले की सभी छतों पर फेंक दिया। पड़ोस के पहलवान की पत्नी ने वह चिट्ठी उठाकर अपने पति को दे दी। अब पहलवान तो था अनपढ़ उसने उसे प्रेमपत्र समझा और जाकर प्यारेलालजी के चेहरे का नक्शा बिगाड़ दिया। प्यारेलालजी टूटी-फूटी हालत में घर पहुंचे।
इधर प्यारेलालजी व्यग्रता के मारे प्रतिपल अपने ब्लाग को इस उम्मीद से रिफ्रेश करते कि कभी तो पाठक मिलेंगे और टिप्पणियों की बारिश होगी जिससे उनके लेखन की फसल लहलहाएगी। लेकिन यहां तो मामला ही उल्टा था, टिप.. टिप.. करके भी टिप्पणियां नहीं बरस रही थी। टिप.. टिप.. टिप.. टिप.. टिप्पणी की एक बूंद ही मिल जाए, प्यारेलालजी के मन में बस यही बात सालती रहती। वे यही सोचते- कोई तो मिलेगा जो गलती से ही सही पर मेरा ब्लाग पढ़ेगा। बाकी ब्लागर्स के समय लोग यह गलती कर देते हैं पर मेरे समय ही लोग सुधर जाते हैं। वे अपने आपको कोस ही रहे थे कि तभी ब्लाग में एक बेनाम टिप्पणी टिप..टिप.. करते हुए आई। प्यारेलालजी की आंखें चमक उठीं। उन्होंने टिप्पणी पढ़नी शुरू की। टिप्पणी में लिखा था- "क्या पकाऊ लेख लिखा है। पकाकर काला कर दिया। आज मैं अपनी प्रेयसी से प्रणय निवेदन करने जा रहा था लेकिन तुम्हारे पकाऊ लेख ने पूरा मूड बिगाड़ दिया।" ऐसी टिप्पणी पढ़कर प्यारेलालजी गुस्से के मारे लाल हो गए। वे सोचने लगे कि ऐसी गंदी टिप्पणी कौन कर सकता है। उनका पहला शक मोहल्ले के मजनूं शायर "आशिक आवारा" पर गया क्योंकि वही रोज किसी न किसी से प्रणय निवेदन करता है और सैंडलें खाता है। पर उनके मन में एक खुशी थी। आज पहली बार उन्होंने टिप्पणी की बूंद को चखा था। कड़वी ही सही पर टिप्पणी तो मिली। ये सोचकर मंत्रमुग्ध हो रही रहे थे कि दूसरी टिपपणी भी आ गई। वे खुशी के मारे दोहरे हो गए। टिप्पणी में लिखा था- "ब्लागिंग से जी भर गया हो तो अब थोड़ा भोजन से पेट भर लो। टेबल पर खाना लगा दिया है।" ये टिप्पणी उनकी श्रीमतीजी ने किया था। प्यारेलालजी विस्मयभरी नजरों से अपनी पत्नी को देखने लगे और बोले, "तुमने ये टिप्पणी कैसे कर दी, कम्प्यूटर पर तो मैं बैठा हूं"। श्रीमती बोली- "दरअसल मैंने भी चुपके से लैपटॉप लेकर ब्लागिंग शुरू कर दी थी। काम भी करती गई और ब्लागिंग भी। ये देखिए मेरा ब्लाग।" प्यारेलालजी हतप्रभ से अपनी श्रीमतीजी को देखने लगे। फिर जब उन्होंने अपनी श्रीमतीजी का ब्लाग देखा तो चकरा गए। हर पोस्ट पर पूरे मोहल्ले की ४०-५० टिप्पणियां थीं। वे वहीं ढेर हो गए। श्रीमतीजी के ब्लाग पर टिप्पणियों की बारिश और हमारे ब्लाग पर टिप्पणी के छींटे भी नहीं। लेकिन इससे प्यारेलालजी को एक और आइडिया मिल ही गया। अब उन्होंने प्यारे से प्यारी बनने की ठान ली। म.. म..मतलब.. अब उन्होंने प्यारी के नाम से नया ब्लाग बनाने की सोची, कम से कम अब तो टिप्पणियां आएंगे ही और मैं चाहे कितना ही पकाऊ लेख लिख लूं, लड़के उसकी तारीफ जरूर करेंगे।
वैसे आप भी टिप्पणी और सुझाव देकर प्यारेलालजी की मदद कर सकते हैं। उनका ब्लागएड्रेस है- http://pareshanpyarelal.blogspot.com। आप मदद करना चाहेंगे?
लंबी शांति आने वाले तूफान का संकेत होती है। दस साल तक अपने मुंह और हाथ को बांधकर रखे प्यारेलाल जी के अंदर का लेखक जोर मारने लगा था। वे एक बार फिर अपने विचारों से समाज को हिला देना चाहते थे। लेखक प्यारेलाल नामक तूफान बस आने ही वाला है। मगर कैसे? ये यक्ष प्रश्न प्यारेलालजी के सामने आ खड़ा हुआ। टिप्पणी प्राप्त करने के पुराने सारे पैंतरे फेल हो चुके थे। अगर इस बार भी एक भी टिप्पणी हासिल नहीं हुई तो जीवन निरर्थक हो जाएगा। इसलिए उन्हें वर्तमान तकनीकी युग में तकनीक से हाथ मिलाया। झट से एक कम्प्यूटर खरीद लाए और कवि-लेखक का चोला उतारकर ब्लॉगर का चोला पहन लिया। वैसे 'ब्लॉगर' बोलने में भी बड़ा स्टायलिश लगता है, है ना। तो मैं बात कर रहा था प्यारेलालजी की। उन्होंने झटपट अपना ब्लाग बनाया और एक पोस्ट लिख दिया। अब बारी थी उस सुनहरे पल की 'टिप्पणी' की।' लेकिन टिप्पणी तो तब आएगी ना जब किसी को पता होगा कि इन्होंने आज ब्लाग पर तूफान मचाया है। इसलिए इन्होंने प्रचार की शुरूआत घर से की और रसोई में खाना बना रही श्रीमतीजी को जबर्दस्ती अपना ब्लाग पढ़वाने लगे। वहां रसोई में खाना जल रहा था इसलिए श्रीमतीजी ने बिना पढ़े ही टालने के मकसद से 'अच्छा लिखा है' कहकर फिर रसोई में चली गई। प्यारेलालजी को पहली टिप्पणी मिल ही गई पर मन अब भी असंतुष्ट था। जैसे चातक पक्षी की प्यास सिर्फ मेघ की बूंदों से बूझती है उसी तरह एक सच्चे ब्लागर की टिप्पणियों की प्यास सिर्फ टाइप किए गए टिप्पणियों से ही बुझती है। मुख से की गई टिप्पणियां यह प्यास नहीं बुझा सकती। लिखित टिप्पणी होने से लोगों को साबित किया जा सकता है कि 'देखिए, हमारे लेख भी पढ़े जाते हैं नेट पर'। इसीलिए अब उन्होंने जबरन अपने पाठक बनाने शुरू कर दिए। उन्होंने घर की आयाबाई, दूधवाला, धोबी से लेकर वॉचमैन तक के ईमेल आईडी बना दिए और उन्हें कम्प्यूटर सिखा दिया ताकि उनके पोस्ट पर कम से कम इनकी टिप्पणियां तो आ ही जाएंगी। लेकिन हाय री किस्मत! ये लोग भी एहसानफरामोश निकले। किसी ने भी टिप्पणी नहीं की। आयाबाई बस आरकुटिंग करती रहती, धोबी मैट्रीमोनी साइट सर्च मारता रहता और वाचमैन तो इससे भी बढ़कर पोर्न साइट्स में डूबा रहता। किसी को इतनी भी फुर्सत नहीं कि प्यारेलाल जी का दुख समझे और टिप्पणी देकर उनके सूने ब्लाग को हरा-भरा कर दे।
ब्लागर को ढीठ होना चहिए। और प्यारेलालजी भी कम ढीठ नहीं थे। उन्होंने अपने ब्लाग को प्रचारित करने का दूसरा तरीका खोज निकाला। उन्होंने चिट्ठियों में अपना ब्लाग एड्रेस लिखकर मोहल्ले की सभी छतों पर फेंक दिया। पड़ोस के पहलवान की पत्नी ने वह चिट्ठी उठाकर अपने पति को दे दी। अब पहलवान तो था अनपढ़ उसने उसे प्रेमपत्र समझा और जाकर प्यारेलालजी के चेहरे का नक्शा बिगाड़ दिया। प्यारेलालजी टूटी-फूटी हालत में घर पहुंचे।
इधर प्यारेलालजी व्यग्रता के मारे प्रतिपल अपने ब्लाग को इस उम्मीद से रिफ्रेश करते कि कभी तो पाठक मिलेंगे और टिप्पणियों की बारिश होगी जिससे उनके लेखन की फसल लहलहाएगी। लेकिन यहां तो मामला ही उल्टा था, टिप.. टिप.. करके भी टिप्पणियां नहीं बरस रही थी। टिप.. टिप.. टिप.. टिप.. टिप्पणी की एक बूंद ही मिल जाए, प्यारेलालजी के मन में बस यही बात सालती रहती। वे यही सोचते- कोई तो मिलेगा जो गलती से ही सही पर मेरा ब्लाग पढ़ेगा। बाकी ब्लागर्स के समय लोग यह गलती कर देते हैं पर मेरे समय ही लोग सुधर जाते हैं। वे अपने आपको कोस ही रहे थे कि तभी ब्लाग में एक बेनाम टिप्पणी टिप..टिप.. करते हुए आई। प्यारेलालजी की आंखें चमक उठीं। उन्होंने टिप्पणी पढ़नी शुरू की। टिप्पणी में लिखा था- "क्या पकाऊ लेख लिखा है। पकाकर काला कर दिया। आज मैं अपनी प्रेयसी से प्रणय निवेदन करने जा रहा था लेकिन तुम्हारे पकाऊ लेख ने पूरा मूड बिगाड़ दिया।" ऐसी टिप्पणी पढ़कर प्यारेलालजी गुस्से के मारे लाल हो गए। वे सोचने लगे कि ऐसी गंदी टिप्पणी कौन कर सकता है। उनका पहला शक मोहल्ले के मजनूं शायर "आशिक आवारा" पर गया क्योंकि वही रोज किसी न किसी से प्रणय निवेदन करता है और सैंडलें खाता है। पर उनके मन में एक खुशी थी। आज पहली बार उन्होंने टिप्पणी की बूंद को चखा था। कड़वी ही सही पर टिप्पणी तो मिली। ये सोचकर मंत्रमुग्ध हो रही रहे थे कि दूसरी टिपपणी भी आ गई। वे खुशी के मारे दोहरे हो गए। टिप्पणी में लिखा था- "ब्लागिंग से जी भर गया हो तो अब थोड़ा भोजन से पेट भर लो। टेबल पर खाना लगा दिया है।" ये टिप्पणी उनकी श्रीमतीजी ने किया था। प्यारेलालजी विस्मयभरी नजरों से अपनी पत्नी को देखने लगे और बोले, "तुमने ये टिप्पणी कैसे कर दी, कम्प्यूटर पर तो मैं बैठा हूं"। श्रीमती बोली- "दरअसल मैंने भी चुपके से लैपटॉप लेकर ब्लागिंग शुरू कर दी थी। काम भी करती गई और ब्लागिंग भी। ये देखिए मेरा ब्लाग।" प्यारेलालजी हतप्रभ से अपनी श्रीमतीजी को देखने लगे। फिर जब उन्होंने अपनी श्रीमतीजी का ब्लाग देखा तो चकरा गए। हर पोस्ट पर पूरे मोहल्ले की ४०-५० टिप्पणियां थीं। वे वहीं ढेर हो गए। श्रीमतीजी के ब्लाग पर टिप्पणियों की बारिश और हमारे ब्लाग पर टिप्पणी के छींटे भी नहीं। लेकिन इससे प्यारेलालजी को एक और आइडिया मिल ही गया। अब उन्होंने प्यारे से प्यारी बनने की ठान ली। म.. म..मतलब.. अब उन्होंने प्यारी के नाम से नया ब्लाग बनाने की सोची, कम से कम अब तो टिप्पणियां आएंगे ही और मैं चाहे कितना ही पकाऊ लेख लिख लूं, लड़के उसकी तारीफ जरूर करेंगे।
वैसे आप भी टिप्पणी और सुझाव देकर प्यारेलालजी की मदद कर सकते हैं। उनका ब्लागएड्रेस है- http://pareshanpyarelal.blogspot.com। आप मदद करना चाहेंगे?
गुरुवार, जून 24, 2010 |
Category:
व्यंग्य
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