घोटालों की होली
manmohan-singh-and-sonia-gandhi-cartoon










यूपीए तोड़ रही है,
भ्रष्टाचार के रिकार्ड सारे,
क्या अफसर, क्या नेता, भष्ट यहां हैं सारे,
सरकार के मंत्रियों पर चढ़ा घोटाले का रंग है,
देख के घोटाले की होली, सारी दुनिया दंग है,
किसी ने बनाया कॉमन से वेल्थ,
तो कोई हुआ 2जी से मालामाल,
जिसने चुना था इनको, वही जनता रही बेहाल,
बहुत हुआ सब घोटाला, अब जनता सबक सिखाएगी,
अगले साल चुनावी होली में अपना रंग दिखलाएगी,


अन्ना-अरविंद की होली
Cartoon-Anna-Arvind










सुन सरकार के घोटालों की किलकारी,
अन्ना-अरविंद तैयार हुए ले लोकपाल की पिचकारी।
लोकपाल का रंग भर दोनों कूदे मैदान में,
मांगे मनवाने अपनी किया अनशन मैदान में।
अनशन सफल नहीं हुआ, हो गई दोनों में अनबन
राजनीति करें या नहीं इस पर दोनों में गई ठन।
अरविंद को करनी थी राजनीति, बनाई आप पार्टी,
पोल खोलूंगा सबकी, नहीं चूकूंगा जरा भी।
अन्ना ने नहीं किया समर्थन, बस किया दूरदर्शन
मैं और मेरी टोली भली, इंडिया अगेंस्ट करप्शन।


''होली है, भई होली है। बुरा न मानो होली है।’ ’ होली के दिन ये जुमला हर दूसरे शख्स के मुंह से सुनने मिल जाता है। ये सुन ऐसा लगने लगता है कि होली  रंगों का नहीं बल्कि रुठने-मनाने का त्यौहार है। जहां तक मेरा आंकलन है होली पर बुरा मानने वाला पहला शख्स हिरण्यकश्यप रहा होगा। एक तो वह प्रह्लाद की विष्णुभक्ति के कारण वैसे ही बुरा मानकर बैठा रहता था, उस पर होलिका प्रहलाद को जलाने के चक्कर में खुद जल गई। करेले पर नीम चढ़े वाली इस हालत ने उसे और बुरा मानने पर मजबूर कर दिया। उसी समय शायद किसी अतिउत्साहित महाशय ने पहली होली की खुशी में हिरण्कश्यप के चेहरे पर गुलाल लगाते हुए कहा होगा - बुरा न मानो होली है। इसके बाद उन महाशय का क्या हुआ होगा यह इतिहासकार पता लगाते रहें, किसी के पेट पर लात मारना हमारी फितरत नहीं।

खैर यहां पेचीदा मामला यह है कि जब ''बुरा न मानो होली कहा जाता है- तब यह आदेशात्मक होता है या आग्रहात्मक, समझ नहीं आता? बस यही समझने हम चले गए एक होली मिलन समारोह में जिसमें उत्तम श्रेणी के बुरा मानने वाले शख्सियत शामिल थे। सबसे पहले एक रंग-बिरंगे शख्स से मुलाकात हुई जो ''बुरा न मानो होलीकहते हुए सब पर रंग उड़ेले जा रहे थे। उनके आग्रहात्मक अलाप से समझ आ गया कि ये हमारे पीएम हैं। वे डीएमके सांसदों के पीछे दौड़े चले जा रहे थे कि अब तो बुरा मत मानो होली है। मान भी जाओ होली है। पर वे भी ढीठ थे, बचते-बचाते निकल ही जाते थे- और कहते कि ''बुरा मानेंगे, होली है। हमें अपने रंग में रंगने की कोशिश न करो अब, हमें बेरंग करने वाले भी तुम ही थे, न तो हमारी मांगें मानी उल्टा समर्थन क्या वापस लिया सीबीआई की रेड पड़वा दी।

मनमोहनजी ने टाइम वेस्ट करना उचित नहीं समझा और चले रूठने में पीएचडी कर चुकी ममता बेनर्जी की तरफ। ये पिछले 8-10 महीने से रूठी ही हुई थीं। इन्हें उम्मीद थी कि रुठने के कुछ ही दिनों बाद उन्हें मनाया जाएगा, लेकिन ऐसा हो न सका। होली के समय रूठने-मनाने के ट्रेंड को देख लगता है कि सब इसी उम्मीद से रूठे रहते हैं कि होली के समय इन्हें मनाया जाएगा। जैसे मार्च के आखिर में सालभर का बैलेंस शीट रफा-दफा कर दिया जाता है उसी तरह ये भी अपने रूठने-मनाने का अकाउंट मार्च में ही क्लोज कराना पसंद करते हैं। मनमोहनजी को अपने समक्ष पाकर ममताजी मुंह फेरने लगी मानो ठान के बैठी हों, ''बुरा मानेंगे होली है, नहीं मानेंगे होली है। मनमोहनजी भी कभी गुलाल उड़ाते तो कभी पिचकारी मारते लेकिन ममताजी बिना कोई ममता दिखाए भाग चलीं। इतने में लेफ्ट वाले सामने आ गए, इनको देखते ही मनमोहनजी राइट हो लिए, 8 साल पहले भी ये लोग लेफ्ट-राइट करते थे और अब भी। वहीं एक बॉस जिसने इंक्रीमेंट के स्वप्निल गुब्बारे फोड़ दिए अपने कर्मचारियों को रंग लगाते हुए कहता है- ''बुरा न मानो होली है। बॉस का आदेश है, इसलिए कर्मचारी बुरा न मानते हुए रंग लगवाते हैं, इस उम्मीद से कि इंक्रीमेंट के गुब्बारे फूटे तो क्या शायद दीवाली में बोनस की मिठाई मिल जाए। ऐसी आदेशात्मक होली से बचने का कोई चांस नहीं।

आग्रहात्मक और आदेशात्मक होली के बाद हमने सद्भाव वाली होली भी देखी। एक गुब्बारा मारता तो दूसरा भी मारता। एक गुलाल उड़ाता तो दूसरा भी उड़ाता। ऐसा होलीमय तालमेल दिखा नरेन्द्र मोदी व नीतिश कुमार के बीच। चूंकि दोनों ही एक दूसरे से बुरा मानकर बैठे रहते हैं इसलिए ये तो होना था। नेगेटिव-नेगेटिव पॉजिटिव जो होता है। पीएम पद के लिए दोनों लड़ रहे हैं लेकिन अभी से ये पीएम इन वेटिंग वाला हश्र नहीं चाहते। इसलिए दुर्घटना से देर भली फिलहाल हम दोनों ही महाबली। वैसे बुरा मानने के मामले में हम भी कम नहीं। लेकिन हम होली के घंटे भर पहले ही रूठते हैं तभी तो होली के दिन भी एक घंटे से व्यंग्य लिख रहे हैं। हमें मनाने वाले भी आ गए, अब हम चलते हैं। मनाने वालों की टोली है, बुरा न मानो होली है।
हिन्दीभाषी राष्ट्र में कमजोर अंग्रेजी का खामियाजा किस तरह भुगतना पड़ता है इसका पता हमें कुछ दिनों पूर्व चला। हम टकटकी लगाए रोड के किनारे बनी बड़ी-बड़ी दुकानों को निहारते हुए जा रहे थे। चूंकि महंगाई डायन के शिकंजे में जकड़े हुए हैं इसलिए आजकल दूरदर्शन से ही संतोष करना पड़ता है। ऐसे में हमारी नजर एक दुकान पर ठहर गई। उस पर लिखा था "sale"  50 प्रतिशत की छूट। यह पढ़ते ही हमारी आंखों में चमक आ गई। हमारे निखट्टू (sale) साले ने कपड़े की दुकान खोल ली और अपने जीजा को 50 प्रतिशत की छूट दे रहा है। अपने साले के इस अविश्वसनीय व अकस्मात् प्रेम से अभिभूत मैं दुकान की ओर चल पड़ा।

काउंटर पर 100 वॉट की मुस्कान बिखेरती एक खूबसूरत अप्सरा बैठी थी। जिस तरह स्ट्रीट लाइट की रोशनी सैंकड़ों कीट-पतंगों को आकर्षित करती है उसी तरह वह मुस्काती अप्सरा अपनी चमकदार मुस्कान से कईयों को आकर्षित कर रही थी। उस प्रकाशपुंज से नजर हटाते ही हमारी नजर एक सेल्समेन पर पड़ी। हमने उससे अपने साले निखट्टू का नाम पूछा। उसने उस नाम से अनभिज्ञता जताई लेकिन कहा इसे आप अपनी ही दुकान समझिए और कपड़े खरीदिए। तभी दो और सेल्समेन खड़े हो गए एक पानी लिए और दूसरा रास्ता दिखाने। अब तक हम अपने ससुरालवालों खासकर अपने साले से काफी खफा रहा करते थे, लेकिन उसकी दुकान में ऐसा घरेलू माहौल व आतिथ्य देखकर हमारे आंसू निकल आए।

हमने अपने घडिय़ाली आंसू पोंछे और लगे कपड़े छांटने। चूंकि वहां कपड़े बदलने का कक्ष भी था हम एक के बाद एक कपड़े बदलते रहे। एक घंटे में हमने इतने कपड़े बदल लिए जितने अभी तक के जीवनकाल में नहीं पहने। इसके बावजूद दोनों सेल्समेन के सपाट चेहरों पर मुस्कान चस्पी हुई थी। हमने काउंटर पर बैठी उस मुस्कुराती अप्सरा को देखा, वह अब भी मुस्कुरा रही थी। पूरी दुकान में मुस्कान की सप्लाई वही कर रही थी। जो उन्हें देख ले मुस्काने लगता, मुस्कुराने का यह रोग कंजक्टीवाइटिस की तरह फैल रहा था। 50 कपड़े पहनने के बाद भी हमें कपड़े कुछ खास पसंद नहीं आ रहे थे, वहीं जय-विजय की तरह खड़े दोनों सेल्समेन हम पर कपड़े थोपे जा रहे थे। 

आखिर मैंने दो जोड़ी कपड़े ले ही लिए वह भी 50 प्रतिशत की छूट पर। महंगाई के जमाने में आपको छूट मिल जाए तो ऐसा लगता है भरी गर्मी में किसी ने ठंडा पानी पिला दिया। मगर ऐसे में लू लगने का खतरा भी रहता है। हम खुशी के मारे तुरंत घर लौटे लेकिन घर पहुंचते ही हमारी खुशी को लू लग गई। जो कपड़े हम खरीदकर लाए वह डिफेक्टिव थे, पेंट फटा था, शर्ट की सिलाई निकली थी। गुस्से से भरा मैं वापस दुकान गया। वहां का माहौल ही बदला हुआ था। मुस्कारती हुई अप्सरा अब फुफकारती हुई नागिन बन चुकी थी।  हममें भी उबाल कम न था, हमने उससे कहा- ये डिफेक्टिव कपड़े तुम लोगों ने दिया इसे वापस करो। वह फुफकारती हुई बोली- नहीं होगा और हमें एक नोट दिखाया जिस पर लिखा था बिका हुआ माल वापस नहीं होगा। मेरा गुस्सा 100 डिग्री से 50 डिग्री पर आ गया। मगर दिल में गर्मी अब भी थी, मैंने कहा- मेरे साले (sale) को बुलाओ जिसकी दुकान है और जिसका नाम बाहर बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है। वह कुटिल हंसी हंसते हुए बोली- वह साले नहीं सेल लिखा है। कपड़ों का पता नहीं तुम्हारी अंग्रेजी जरूर डिफेक्टिव है। तुमने 50 कपड़े पहने फिर भी एक ढंग का कपड़ा नहीं छांट पाए, गलती तुम्हारी है। मेरा तापमान अब 50 डिग्री से 0 डिग्री हो चुका था, मैं बोला- लेकिन मेरे पास विकल्प ही नहीं थे, जो थे सब बेकार थे। युवती बोली- आपको समझाती ह, जब चुनाव में आपके सामने डिफेक्टिव प्रत्याशी खड़े किए जाते हैं तब तो कुछ नहीं बोलते, आखिर चुनते हो ना उनमें से कोई। जब इतने बड़े डिफेक्ट के साथ नेताओं को 5 साल चला लेते हो, वापस थोड़ी भेजते हो। तो इन कपड़ों में तो छोटा-मोटा डिफेक्ट है, घर में सीलकर चला लो। हार मानते हुए मैंने उनसे सुई-धागा की गुजारिश की जो उन्होंने मुस्कुराते हुए दिया। उनकी मुस्कान का 100 वॉट का बल्ब फिर जल चुका था। 

मैं भी डीप फ्रीजर से निकले आइसक्रीम की तरह ठंडा होकर वहां से निकला। सीढ़ी पर ही एक गुस्से से खौलते व्यक्ति से मुलाकात हो गई। शायद वह भी कपड़े वापस करवाने आया था। मैंने उसके कंधों पर हाथ रखा और कहा- ठंडे हो जाओ मित्र! बिका हुआ माल और चुना हुआ नेता वापस नहीं होते।