''होली है, भई होली है। बुरा न मानो होली है।’ ’ होली के दिन ये जुमला
हर दूसरे शख्स के मुंह से सुनने मिल जाता है। ये सुन ऐसा लगने लगता है कि होली रंगों का नहीं बल्कि रुठने-मनाने का त्यौहार है।
जहां तक मेरा आंकलन है होली पर बुरा मानने वाला पहला शख्स हिरण्यकश्यप रहा होगा। एक
तो वह प्रह्लाद की विष्णुभक्ति के कारण वैसे ही बुरा मानकर बैठा रहता था, उस पर होलिका प्रहलाद
को जलाने के चक्कर में खुद जल गई। करेले पर नीम चढ़े वाली इस हालत ने उसे और बुरा मानने
पर मजबूर कर दिया। उसी समय शायद किसी अतिउत्साहित महाशय ने पहली होली की खुशी में हिरण्कश्यप
के चेहरे पर गुलाल लगाते हुए कहा होगा - बुरा न मानो होली है। इसके बाद उन महाशय का
क्या हुआ होगा यह इतिहासकार पता लगाते रहें, किसी के पेट पर लात
मारना हमारी फितरत नहीं।
खैर यहां पेचीदा मामला यह है कि जब ''बुरा न मानो होली’
कहा जाता है- तब यह आदेशात्मक होता है या आग्रहात्मक,
समझ नहीं आता?
बस यही समझने हम चले
गए एक होली मिलन समारोह में जिसमें उत्तम श्रेणी के बुरा मानने वाले शख्सियत शामिल
थे। सबसे पहले एक रंग-बिरंगे शख्स से मुलाकात हुई जो ''बुरा न मानो होली’
कहते हुए सब पर रंग
उड़ेले जा रहे थे। उनके आग्रहात्मक अलाप से समझ आ गया कि ये हमारे पीएम हैं। वे डीएमके
सांसदों के पीछे दौड़े चले जा रहे थे कि अब तो बुरा मत मानो होली है। मान भी जाओ होली
है। पर वे भी ढीठ थे, बचते-बचाते निकल ही जाते थे- और कहते कि ''बुरा मानेंगे,
होली है’। हमें अपने रंग में
रंगने की कोशिश न करो अब, हमें बेरंग करने वाले भी तुम ही थे, न तो हमारी मांगें
मानी उल्टा समर्थन क्या वापस लिया सीबीआई की रेड पड़वा दी।
मनमोहनजी ने टाइम वेस्ट करना उचित नहीं समझा और चले रूठने में
पीएचडी कर चुकी ममता बेनर्जी की तरफ। ये पिछले 8-10 महीने से रूठी ही
हुई थीं। इन्हें उम्मीद थी कि रुठने के कुछ ही दिनों बाद उन्हें मनाया जाएगा,
लेकिन ऐसा हो न सका।
होली के समय रूठने-मनाने के ट्रेंड को देख लगता है कि सब इसी उम्मीद से रूठे रहते हैं
कि होली के समय इन्हें मनाया जाएगा। जैसे मार्च के आखिर में सालभर का बैलेंस शीट रफा-दफा
कर दिया जाता है उसी तरह ये भी अपने रूठने-मनाने का अकाउंट मार्च में ही क्लोज कराना
पसंद करते हैं। मनमोहनजी को अपने समक्ष पाकर ममताजी मुंह फेरने लगी मानो ठान के बैठी
हों, ''बुरा मानेंगे होली है, नहीं मानेंगे होली है’। मनमोहनजी भी कभी
गुलाल उड़ाते तो कभी पिचकारी मारते लेकिन ममताजी बिना कोई ममता दिखाए भाग चलीं। इतने
में लेफ्ट वाले सामने आ गए, इनको देखते ही मनमोहनजी राइट हो लिए, 8 साल पहले भी ये लोग
लेफ्ट-राइट करते थे और अब भी। वहीं एक बॉस जिसने इंक्रीमेंट के स्वप्निल गुब्बारे फोड़
दिए अपने कर्मचारियों को रंग लगाते हुए कहता है- ''बुरा न मानो होली है’। बॉस का आदेश है,
इसलिए कर्मचारी बुरा
न मानते हुए रंग लगवाते हैं, इस उम्मीद से कि इंक्रीमेंट के गुब्बारे फूटे तो क्या शायद दीवाली
में बोनस की मिठाई मिल जाए। ऐसी आदेशात्मक होली से बचने का कोई चांस नहीं।
आग्रहात्मक और आदेशात्मक होली के बाद हमने सद्भाव वाली होली
भी देखी। एक गुब्बारा मारता तो दूसरा भी मारता। एक गुलाल उड़ाता तो दूसरा भी उड़ाता।
ऐसा होलीमय तालमेल दिखा नरेन्द्र मोदी व नीतिश कुमार के बीच। चूंकि दोनों ही एक दूसरे
से बुरा मानकर बैठे रहते हैं इसलिए ये तो होना था। नेगेटिव-नेगेटिव पॉजिटिव जो होता
है। पीएम पद के लिए दोनों लड़ रहे हैं लेकिन अभी से ये पीएम इन वेटिंग वाला हश्र नहीं
चाहते। इसलिए दुर्घटना से देर भली फिलहाल हम दोनों ही महाबली। वैसे बुरा मानने के मामले
में हम भी कम नहीं। लेकिन हम होली के घंटे भर पहले ही रूठते हैं तभी तो होली के दिन
भी एक घंटे से व्यंग्य लिख रहे हैं। हमें मनाने वाले भी आ गए, अब हम चलते हैं। मनाने
वालों की टोली है, बुरा न मानो होली है।
मंगलवार, मार्च 26, 2013 |
Category: |
1 comments
Comments (1)
बुरा न मानो होली है।