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वैसे ऑक्टोपस बाबा अगर भारत में होते तो रातों रात सुपरबाबा का तमगा हासिल कर गए होते। अब तक तो इनके नाम से कई आश्रम खुल गए होते, लाखों भक्त रात-दिन उनके दरबार में मत्था टेक रहे होते। इनकी भविष्यवाणियों के आधार पर फिल्मों के नाम रखे जाते, शादियां की जाती, बच्चों के नाम रखे जाते, राजनीतिक पार्टियां किस पार्टी से गठबंधन करे यह भी ऑक्टोपस बाबा से ही तय करवाती। सभी पार्टियों के नाम से मर्तबान ऑक्टोपस बाबा के शाही जलघर में रख दिए जाते और ऑक्टोपस बाबा जिस पार्टी के मर्तबान पर हाथ रख देते उस पार्टी की किस्मत चमक जाती। पर लगता नहीं ऑक्टोपस बाबा का भारत आगमन हो पाएगा वहां की जनता उन्हें आने ही नहीं देगी। इसलिए मैंने यहीं भारत में एक ऐसे ही चमत्कारी बाबा की तलाश करने का संकल्प ले लिया।
अगले दिन मैं आदत की तरह पिताजी की लात और मां की दांत खाने के बाद ही उठा। इधर-उधर स्वाति, सपना, पूजा को देखने बाद ही आंखों में कुछ ताजगी आई। अब मैं निकल पड़ा उस जीव को ढूंढने जो ऑक्टोपस बाबा की तरह अलौकिक हो, खास हो, भविष्यवाणियां करता हो। घोड़े को देखा, हाथी को देखा, तोते को देखा, गधे, चूहे, बिल्ली सबको देखा। पूरा चिड़ियाघर खंगाल मारा लेकिन ऐसा कोई जीव नहीं दिखा जो ऑक्टोपस बाबा की तरह खास हो। गाय के तबेलों को भी छान मारा लेकिन गाय-भैसों में भी वो बात नजर नहीं आई। हां, उनकी शांति में खलल डालने के कारण मुझे उनकी लात जरूर खानी पड़ी और गोबर के कंडे थापने पड़े वो अलग। थक-हार कर मैं घर वापस आया। अभी चौक
पर झुके कंधों के साथ निराशा में डूबा मैं बैठा ही था कि पिल्लू पर नजर पड़ी। पिल्लू हमारे मोहल्ले का चौकीदार है। नहीं...नहीं... वो सीटी बजाने वाला नहीं, भौंकने वाला चौकीदार। पिल्लू मोहल्ले का आवारा कुत्ता है लेकिन पालतू से कम नहीं। मोहल्ले की शान है पिल्लू, सबकी जान है पिल्लू। मुझे उस मरियल से पिल्लू में उस अद्भुत जीव के दर्शन होने लगे जो ऑक्टोपस बाबा को टक्कर दे सकता था। जब भी मैं क्रिकेट मैच खेलने जाता था पिल्लू हमारी टीम के बल्ले पर मूत्र विसर्जन कर देता था और उस दिन इत्तेफाक से हमारी टीम जीत जाती थी। अब मुझे ये इत्तेफाक नहीं पिल्लू की चमत्कारी शक्ति लगने लगी
थी, जिसे मैं पहचान ही नहीं पाया। पिल्लू में एक और खास बात थी, इस बेवफाई के दौर में इंसानों के साथ रहते हुए भी वह अब तक वफादार था। कुछ खास तो था उसमें। इसलिए जिस पिल्लू को मैं लात मार-मारकर भगाया करता था आज उसे प्यार से पुचकारने लगा और उसे मन ही मन उसे पिल्लू बाबा बनाने की सोचने लगा। क्रिकेट वर्ल्ड कप भी ७-८ महीनों बाद है इसलिए मैंने सोचा कि अबकी बार मैं पिल्लू से भविष्यवाणी करवाऊंगा कि कौन सी टीम मैच जीतेगी। दो देशों के झंडे गाड़ूंगा और जिस झंडे पर पिल्लू ने मूत्र विसर्जन कर दिया और पिल्लू की चमत्कारी शक्तियों ने काम कर दिया तो समझ लो वो टीम जीत जाएगी। अगर ऐसे ही शुरूआती ४-५ मैचों में पिल्लू की शक्तियों ने जादू दिखा दिया तो मेरे पिल्लू को पिल्लेश्वर बाबा बनते और मुझे भी प्रसिद्ध होते देर नहीं लगेगी। और अगर किसी मैच में हार भी गए तो इसके लिए बहानों की फेहरिस्त पहले से तैयार थी। मुझ जैसे निठल्ले के लिए इससे बड़ा पैसा कमाने का फार्मूला नहीं था। लेकिन पिल्लू को देशों के झंडे पर मूत्र विसर्जित करवाने में खतरा था क्योंकि अगले दिन उन देशों के लोग और मीडिया द्वारा मेरे घर पर पत्थर बरसाने का डर था। इसलिए मैंने इसके लिए विकल्प खोजना शुरू कर दिया। साथ ही पिल्लू का नाम पिल्लेश्वर से कुछ अलग रखने की सोची। पिल्लेश्वर चालू नाम लगता है, उसमें वो आकर्षण नहीं था। कुछ देर सोचने के बाद मैंने तय किया कि पिल्लू का नया नाम होगा- "पॉल"। "पॉल" नाम में अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव भी था, इससे विदेशी मीडिया भी मेरे "पॉल बाबा" के चमत्कार को कव्हर करती। अब बारी थी "पॉल" के मूत्र विसर्जन शक्ति के विकल्प को तलाशने की।
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अगली सुबह मैं जल्दी उठा, क्यां करूं पैसा और प्रसिद्धि बनाने की मशीन को तैयार जो करना था। भारत को उसके बहुप्रतीक्षित "पॉल बाबा" से रूबरू जो करवाना था। वैसे तुक्के मारने में मैं भी कम नहीं था, कई शर्ते मैंने तुक्का मारकर ही जीती हैं, सो मैंने सोचा अपने इस तुक्का मारू शक्ति और पॉल की शक्ति को मिलाकर कुछ किया जाए। मैंने तय कर लिया कि तुक्का मैं मारूंगा और पॉल को ट्रेन करूंगा कि वो उस देश को झंडे को चाटे जिसे मैंने चुना है। चार-पांच तुक्के सही निकल गए तो हमको प्रसिद्ध होने से कोई नहीं रोक सकता और मीडिया तो ऐसी खबरों को कवर करने के लिए बेकरार रहता ही है।
अब मुझे पॉल को झंडे पर मूत्र विसर्जन के बजाए झंडे को चाटने की ट्रेनिंग देने थी क्योंकि अब अखबारों में पॉल की मूत्र विसर्जन करते हुए फोटो तो नहीं छप सकती ना। झंडा चाटते हुए पॉल ज्यादा स्टाइलिश लगेगा। इसलिए मैंने अपनी पसंद के देश के झंडे पर पॉल के पसंद के बिस्किट लगा दिए और दूसरी झंडे पर चालू बिस्किट। चूंकि पॉल लालची भी था इसलिए वह मेरी पसंद वाले झंडे को ही चाटता था। कुछ ही महीनों में पॉल पूरी तरह प्रशिक्षित हो चुका था।
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इस तरह मेरी उम्मीद के मुताबिक मैं और पॉल कुछ ही दिनों में चर्चित हो गए। पॉल ने बाबा की उपाधि ग्रहण कर ली और मैंने बाबा के गुरू की। क्वार्टरफायनल और सेमीफायनल में भी मेरा तुक्का चल गया और भारत जीत गया, इससे अन्तरार्ष्ट्रीय मीडिया भी हमारी तरफ आकर्षिक हो गई। बेचारे ऑक्टोपस बाबा तो हमारी प्रसिद्धि देख पानी में भी जलने लगे। लेकिन बवाल तो तब हुआ जब वर्ल्डकप का फायनल मैच हुआ। फायनल में आस्ट्रेलिया और भारत का मुकाबला था। अहम मौकों पर भारत के हारने के गुण को देखते हुए मैंने आस्ट्रेलिया पर दांव लगाया और पॉल ने भी आस्ट्रेलिया के झंडे को चाटा। और उम्मीद के मुताबिक भारत हार गया। इसके बाद तो भारत की हार भड़के कुछ प्रशंसक पॉल को दोषी मानकर उसकी जान के पीछे पड़ गए लेकिन मैं निश्चिंत था क्योंकि मुझे पता था अब तक पॉल बाबा के प्रशंसकों की संख्या उन भड़के हुए समर्थकों से कई गुना हो चुकी थी। इतने सारे प्रशंसक अपने पॉल बाबा का नुकसान कैसे होने देते, अंधश्रद्धा तो भारतीयों का नैसर्गिक गुण है, तभी तो कुकुरमुत्ते की तरह हर गली में पैदा होते बाबाओं की रोजी रोटी इतने मजे से चलती है। चूंकि पॉल बाबा अब सेलीब्रिटी बन चुका था लिहाजा उसे जेड श्रेणी की सुरक्षा भी उपलब्ध करा दी गई थी। क्या नेता, क्या व्यापारी सब के सब उसके भगत बन गए। जिस शहर में पॉल बाबा पहुंच जाते वहां जनसैलाब उमड़ पड़ता। शादी के लिए वर-वधु चुनने के लिए भी लोग पॉल बाबा की राय लेने लगे। एक युवक १० लड़कियों की फोटो लेकर आया और पॉल बाबा के सामने रख दिया। पॉल बाबा रोज-रोज की भीड़ से खिसिया चुके थे और वे उन सभी फोटो को नोच-नोचकर खा गए। उस युवक ने इस घटना को दूसरे अर्थ में ले लिया और सोचा कि शायद पॉल बाबा का आदेश है कि जीवनभर शादी मत करो। उसने पॉल बाबा के चरण छुए और जीवनभर कुंवारे रहने का शपथ लेकर चल दिया। उस बेवकूफ को क्या पता कि पॉल तो खीझ के कारण फोटो को नोंच रहा था। खैर, उस दिन के बाद उस युवक से कभी मुलाकात नहीं। हमको इससे क्या, पॉल और मैं तो जिंदगी के मजे ले रहे थे।
इतने महीनों की व्यस्तता और भीड़भाड़ से हम पक चुके थे। हमें अब बदलाव चाहिए था। पैसे भी बहुत थे, सो हम दोनों निकल लिए वर्ल्ड टूर पर सोचा अब डॉलर में कमाया जाए और जर्मनी के एक्वेरियम में बैठे उस ऑक्टोपस बाबा को भी चिढ़ाया जाए, आखिर आइडिया तो उसी को देखकर आया था। दुनिया के लिए वो पॉल बाबा था लेकिन मेरे लिए तो मेरा वफादार पॉल था। पॉल ने अब गाड़ी चलाना भी सीख लिया था, पता नहीं कैसे। हम दोनों स्विट्जरलैंड की हसीन वादियों में लांग ड्राइव का मजा ले रहे थे। हम घूम रहे थे.... घूम रह थे.... और घूम रहे थे.... कि तभी किसी ने मेरे सिर पर जोरदार चपेट मारी और मुझे बालों से पकड़कर उठाया। जोरदार चिल्लाने की आवाज आई- "अरे कुंभकरण! चल उठ सुबह के दस बज गए। कितने सपने देखेगा।" रोज की तरह पिताजी चिल्ला रहे थे। इतना सुनते ही मैं हड़बड़ाकर उठा। अपनी आंखों को मसलता हुआ मैं बाहर आया। बाहर आकर देखा तो पिल्लू रोज की तरह कूड़े में खाना तलाश रहा था। इसका मतलब मैं अभी तक सपने में था। कोई बात नहीं इस सपने को सच में तब्दील करना ही पड़ेगा। मेरे और शोहरत के बीच सिर्फ एक 
"पॉल" का फासला है। आप लोग क्या कहते हैं, बना दूं पिल्लू को पॉल...?
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शनिवार, जुलाई 10, 2010 |
Category:
व्यंग्य
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Comments (2)
aapke vyang mein jabardast dhar hai.aap use rochak bhee bana dete hain.mujhe 25 saal pehle ke apne mitra yaad aa rahe hain jo kehte the ki nai peedhee vyang ko nahi samjhegi.aap purane waqt ko aasha bhara jawab hain.mera aashirwad...
व्यंग्य को पसंद करने एवं टिप्पणी कर मेरा उत्साहवर्धन करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद प्रबोधजी। आपके आशीर्वाद से मैं निश्चित रूप से आगे और बेहतर लिख पाऊंगा। मैं आपकी आशाओं पर खरा उतरने का पूरा प्रयास करूंगा।