नेट में कल मैंने एक खबर पढ़ी कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा दुखी लोग है। यह खबर पढ़ते ही मैं अपना सिर पकड़कर बैठ गया। भारत और डिप्रेस्ड...???? सिर पर अपना हाथ रखा देख मैंने झट उसे हटाया क्योंकि सिर पर हाथ रखकर बैठना तो डिप्रेशन का पोज़ है। मतलब कि मैं भी डिप्रेस्ड हूं। उन दुखियारे भारतीयों में मेरा भी नाम है। हे राम ! जरूर डब्ल्यूएचओ वालों ने मुझे इस डिप्रेस्ड पोज में देख लिया होगा और मुझे भी दुखियारों में शामिल कर लिया होगा। अरे मैं तो हूं ही चिंतक किस्म का। व्यंग्य लिखने के प्रयास के दौरान सोचने के लिए सिर पर हाथ रख लेता हूं। मेरी मां कहती हैं मेरा दिमाग खाली है। बस वही चेक करने के लिए कभी -कभी सिर पर हाथ रख लेता हूं। पर भैया इसका मतलब यह थोड़ी कि हमकों भी दुखियारा घोषित कर दो। अरे दुखियारे हो हमारे मित्र, हमारे दुश्मन, हमारे पाठक, हमारे पड़ोसी पोंगा पंडितजी। हम भला क्यूं दुखियारे होने लगे???
खबर में आगे लिखा था कि ३५.९ प्रतिशत मेजर डिप्रेसिव एपिसोड (एमडीई) से ग्रस्त हैं। इन दुखियारे लोगों के डिप्रेशन की बहुत सारी वजह है- मसलन कम तनख्वाह, दूसरी की सफलता से दुखी होना, दूसरों की निंदा करना, हर समय यहां-वहां की चिंता करना, अकेलापन आदि। ये सब लक्षण तो मुझमें भी थे- मेरी तनख्वाह कम है, कलमाड़ी-राजा आदि भ्रष्ट लोगों की सफलता से मैं दुखी हूं, इसलिए ईर्ष्यावश उनके उपर व्यंग्य लिखता हूं उनकी निंदा करता हूं, सबको पता है चिंतन तो मेरा स्वभाव है, यहां वहां की चिंता भी मैं करता हूं, और अपनी प्रियतमा से भी मैं काफी समय से दूर हूं- मतलब फिलहाल अकेला हूं। ये सारे दुखियारे होने के लक्षण तो शत-प्रतिशत मुझसे मैच करते हैं। अब यह तो प्रमाणित हो गया कि मैं दुखियारा हूं। हे राम ये तूने क्या किया?
अपने सारे दुखों का इलाज मुझे सिर्फ उस ऊपरवाले के पास ही दिखता है। वो जो परम अल्पज्ञानी है। जो खुद सबसे बड़ी समस्या है- हमारे पोंगापंडित जी जो सामने वाले फ्लैट के सबसे उपरी मंजिल में रहते हैं। मैं दौड़ पड़ा उनके फ्लैट की ओर... दुखों का बोझ अपने ऊपर लिए हुए। लिफ्ट बंद देखकर मैं सीढ़ी के रास्ते गया। ज्यों-ज्यों सीढ़ी चढ़ता गया मेरा दुख सब तरफ से बाहर निकलने लगा। आंख, नाक, माथे, गले सब जगह से दुख बहने लगा। अंत में दुख से नहाया हुआ मैं उनके कमरे तक पहुंचाया। मैं पूरी तरह दुख से नहाया हुआ था। मुझे देख पोंगापंडित जी चौंक पड़े- अरे तुम्हारी ये हालत। कल तक चेहरे पर चस्पी तुम्हारी चिर-परिचित कुटिल मुस्कान कहां गई। आज ये दुखियारा लुक क्यों अपनाए हुए हो? क्या बात है, हम पर रोज व्यंग्यात्मक नजर रखने वाली तुम्हारी आंखें घुसी हुई हैं, बाल बिखरे हुए, चेहरे का तेज तो ऐसे गुल है जैसे फ्यूज्ड बल्ब हो, हम पर रोज व्यंग्य का वार करनी वाली आपकी लंबी जुबान छुपी-छुपी सी है, पसीने से नहाए हुए हो इतनी दुर्गंध आ रही है कि हमारे यहां की मक्खियां बेहोश हो कर गिर रही हैं। अच्छा हुआ आ गए कल ही मक्खी-मच्छर मारने वाली दवा खत्म हुई थी। रात को आए होते तो और बेहतर होता, कम्बख्त मच्छरों ने बड़ा परेशान किया। खैर , अब अंदर आकर अपना दुखड़ा सुनाओ, अपनी चोटी घुमाते हुए पंडितजी ने मुझे निमंत्रित किया।
मैंने अपना दुखड़ा पुराण शुरू किया। अरे क्या बताऊं पंडितजी- कल तक हम जो दिल में फीलगुड वाला फैक्टर लिए घूमते थे वो सब काफूर हो गया। अरे जिस सुमित को महंगाई डायन नहीं डरा पाई, इतने घोटाले और भ्रष्टाचार नहीं तोड़ पाए। अरे जो रिसेशन की आंधी में भी खुशियों का दीया जलाता रहा उस सुमित को डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट ने दुखियारा घोषित कर दिया। मेरी तनख्वाह कम है, भ्रष्टाचारियों की सफलताओं से मैं जलता हूं, उनकी निंदा करता हूं और अपनी प्रियतमा से पिछले झगड़े के बाद से मैं बिलकुल अकेला हूं- ये सब लक्षण दुखियारा होने की ओर संकेत करते हैं, यानी मैं हूं टोटल दुखियारा। पंडितजी की आंखें भर आईं- शायद मेरा दुख उनके बर्दाश्त नहीं हुआ।
कुछ देर शांत रहने के बाद फव्वारे की तरह फूटते हुए पंडितजी बोले- बस इतने से दुख हो गया तुमको। तुम्हारी तनख्वाह भले ही कम हो पर है तो सही, हमा्री तो बिलकुल जीरो है, एकदम निठल्ले हैं हम। तुम तो कम से कम कलमाड़ी-राजा जैसे बड़े लोगों की निंदा करते हो, उन पर व्यंग्य कसते हो, हम तो तुम्हारे जैसे छोटे-मोटे लोगों की भी निंदा करते हैं। तुम्हारे लिखे व्यंग्य को अगर एक पाठक भी मिल जाता है तो हम उसे तुम्हारे लेख नहीं पढ़ने देते अपितु उसे दूसरे लेखक की तरफ घुमाने में लग जाते हैं। और रही बात अकेलेपन की तो कम से कम तुम्हारी प्रियतमा तो थी, हमने तो आज तक किसी लड़की से बात तक नहीं की ऊपर से शादी की उम्र भी निकलती जा रही है। उस बाबा रामदेव की राखी सावंत दीवानी है और हमको तो कोई देखती तक नहीं। अरे सुमितजी कम से कम आप थोड़े ऊंचे दर्जे के दुखियारे हैं पर हम तो एकदम निम्न दर्जे के दुखियारे हैं। मैंने जैसे ही सुना- ऊंचे दर्जे का दुखियारा मेरा दुख ३-४ किलो कम हो गया। वो क्या है ना शुरू से ही हमें ऊंचे दर्जे का कहलाना बहुत पसंद रहा है।
बस फिरथा क्या कुछ देर के बाद हम दोनों ऊंचे एवं निम्न दर्जे के दुखियारे अपने दुखों पर आंसू बहाने लगे। चूंकि मैं पोंगा पंडितजी के अनुसार ऊंचे दर्जे का दुखियारा था इसलिए मैं रौब के साथ एक साफ तौलिया लिए रोने लगा, साथ ही पंडितजी से थोड़ा दूर चला गया ताकि उनके निम्न दर्जे के दखियारे आंसू मुझ पर न पड़े। काफी देर के इस रुदनासन के बाद पंडितजी बोले- अरे सुमितजी आगे और कुछ तो लिखा होगा खबर में वो तो बताइए। मैंने कहा- हां, लिखा है ना। आगे लिखा है कि अगर इस डिप्रेशन का तुरंत इलाज न किया गया तो आगे गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। इतना सुनते ही पंडितजी आंसू पोछकर उठ खड़े हुए। वे बोले- बस अब बहुत हुआ रोना, अब निदान की बारी है। हम आज से ही दुखी होने के सारे रास्ते बंद कर देंगे।
सर्वप्रथम तो अब हम पंडितजी से बाबाजी का रूप धरेंगे। सत्संग कराएंगे, लोगों को ज्ञान बांटेंगे, अपना ट्रस्ट खोलेंगे। लोगों के भक्तिपूर्वक दान से हमारे ट्रस्ट में कई सौ करोड़ रुपए इकट्ठा हो जाएंगे। इस तरह हम कम आय जैसी पीड़ा से सदा के लिए मुक्त हो जाएंगे। रही बात अकेलेपन की तो बाबा बनते ही हमारे आसपास शिष्य-शिष्याओं की भीड़ होगी, अकेलेपन की प्राब्लम भी समाप्त। इतने ऊंचे जीवनस्तर पर पहुंचने के बाद न तो हमें किसी से ईर्ष्या हो सकती है, न हमें किसी प्रकार की चिंता की आवश्यकता होगी। अंत में रही बात जीवनसाथी की तो हमारा इतना क्रेज देखकर बॉलीवुड तो क्या हालीवुड अभिनेत्रियों भी हमारे लिए क्रेजी हो जाएंगी। लो हो गया सभी समस्याओं का हल, अब आप बोलो।
जिन पंडितजी को मैने परमअल्पज्ञानी की उपाधि दी थी उनके द्वारा पलभर में इतने सारे समस्याओं का हल बताने पर मैं अवाक् रह गया। उनके मुख से मिसाइल की तरह निकले शब्दों ने एकाएक मेरी नजर में उनका स्थान बहुत ऊपर उठा दिया था। तब उनको साष्टांग दंडवत प्रणाम करते हुए मैं बोला- हे पंडितजी। अपनी समस्याएं तो आपने निपटा ली, अब मेरी समस्याओं का भी हल बताएं। पंडितजी कुछ अकड़कर बोले- हां बालक जरूर। बालक सुनते ही मैं चौंक। पंडितजी आपने मुझे बालक बोला। पंडितजी बोले- बाबा का स्वरूप तो मैंने अभी से ही धर लिया है। अब तुम मेरे लिए सुमितजी नहीं अपितु बालक हो, वत्स हो, मेरे फर्स्ट एंड फोरमोस्ट भक्त हो। मैंने कहा- ठीक है गुरूजी सब मंजूर है। पंडितजी आगे बोले- सबसे पहले तो तुम ये लिखना-विखना बंद करो, कुछ कर्म करो, कर्मप्रधान बनो। कुछ ऐसा करो कि लोग तुम्हारे बारे में लिखें। किसी सरकारी विभाग में घुसे। जहां भी जाओ भ्रष्टाचार की सीमा को पार करते जाओ। अगर चपरासी भी होगे तो उस करोड़पति चपरासी की तरह होना जो हाल ही में उड़ीसा में पकड़ाया था। अगर अधिकारी हुए तो ऐसा अधिकारी होना जिसके यहां इनकम टैक्स वाले छापा मार-मारकर त्रस्त हो जाएं। इन शार्ट बालक! तुम जहां भी रहना भ्रष्टाचार का झंडा बुलंद किए रहना। फिर देखना तुम्हें किसी की सफलता से ईर्ष्या नहीं होंगी अपितु लोग तुमसे ईर्ष्या करेंगे। वैसे भी ईर्ष्या मनुष्य का शत्रु है, इसलिए जलो मत बराबरी करो पुत्र। ऐसा करते ही तुममें विश्व बंधुत्व की भावना आ जाएगी, तुम्हें सभी भ्रष्टाचारी अपने भाई प्रतीत होंगे। रही बात अकेलेपन से ग्रस्त होने की तो वो तो तुम भूल जाओ, तुम्हारे पास इतना धन होगा कि तुम खुद का स्वयंवर रचा सकते हो वो भी टीवी पर।
धन्य हो गुरूजी, मैं पंडितजी की जय-जयकार करने लगा। आपने तो चुटकी में मेरे सभी समस्याओं का निदान बता दिया। मैं मूरख न जाने किस मृगतृष्णा में भटक रहा था, किन अंधेरी गलियों में अपना रास्ता तलाश रहा था। मैंने नामसझी में आपको परमअल्पज्ञानी कहा लेकिन आपके मुख से निकले इन चमत्कारी शब्दों ने मेरे ज्ञानचक्षु खोल दिए। मेरे मन में जो बाकी लोगों के प्रति दुर्भावना का मैल था, उसे साफ कर दिया। आप महान है, परमज्ञानी है। आपकी जय हो। प्रसन्न मुद्रा में मैं बाहर निकला। अब शरीर में जहां-तहां से हो रहा दुखों क स्त्राव बंद हो चुका था। दुखों से भीगी मेरी कमीज सूखकर नई हो चुकी थी। पंडितजी के ज्ञान के साबुन ने उसे साफ करते हुए सर्फ एक्सेल, रिन जैसे साबुनों को फेल कर दिया। दुखों के कारण तन से आ रही दुर्गंध मेरे इर्द-गिर्द फैल चुके ज्ञान के आभामंडल के कारण दूर हो चुकी थी और उसकी जगह पंडितजी के ज्ञान की खुशबू आ रही थी जिसका प्रभाव कुछ-कुछ डियोड्रैंट के विज्ञापनों जैसा था। ज्ञान की खुशबू के कारण कल तक हमको एक नजर तक न देखने वाली बबली अब बबलगम चबाते हुए हमें बड़े प्यार से देख रही थी। अंततः अब मैं दुखियारों की श्रेणी से बाहर आ चुका था। पंडितजी की जय हो।
गुरुवार, जुलाई 28, 2011 |
Category:
व्यंग्य
|
5
comments
Comments (5)
न जाने किस मृगतृष्णा में भटक रहा था, किन अंधेरी गलियों में अपना रास्ता तलाश रहा था।
बहुत अच्छा लिखा है आपने।
रचना की सराहना के लिए धन्यवाद मनोजजी।
हा हा हा बहुत बढिया
मारा पापड़ वाले को झपाटे से।
जय हो बहुत बढिया।
सटीक व्यंग..... बात बात में गहरी बात कह दी....